मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 20 जून 2013

प्राकृतिक आपदा और प्रबंधन

                                    केदार घाटी के साथ उत्तराखंड में हुए भीषण प्राकृतिक तांडव के बीच जिस तरह से राहत भरी ख़बरें आ रही हैं उनसे यही लगता है कि भले ही प्रकृति ने किसी भी तरह से अपना क्रोध दिखाया हो पर सेना और आपदा राहत दलों के तेज़ी से किए जा रहे प्रयासों से राहत और बचाव कार्यों में कुछ तेज़ी अवश्य ही आई है. उत्तराखंड की भीड़ भाड़ वाली वार्षिक चार धाम यात्रा के चलते इस समय जिस तरह से प्रकृति ने अपना कोप दिखाया है उसके लिए कोई भी तैयार नहीं था पर वैसे भी देखा जाए तो सामान्य तौर पर जून के महीने में बरसात होने से कई बार यात्रा को रोकना तो पड़ता था पर इस तरह से जल प्रलय की किसी को भी उम्मीद नहीं थी. पहाड़ों पर बादल फटने जैसी स्थति बनने के बाद जिस तरह से चमोली, रूद्र प्रयाग में पूरी तरह से तबाही का मंज़र ही दिखाई दे रहा है वह भी हमें प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ रोकने के लिए चेतावनी ही देता लगता है पर हम केवल अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही जिस तरह से प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने में लगे हैं उससे स्थितियां और भी विषम होती जा रही हैं.
                                    अभी भी प्रशासन के पास इस तरह की कोई सूचनाएँ ही नहीं हैं कि इन ज़िलों के दूर दराज़ के क्षेत्रों में धरातल पर क्या स्थिति है और लोग किन परिस्थितियों में जी रहे हैं क्योंकि अभी सभी का पूरा ध्यान उन तीर्थ यात्रियों को बचाने पर लगा हुआ है जो चार धाम के साथ हेमकुंड साहिब की यात्रा पर थे और इन क्षेत्रों में व्यापक तबाही सामने आती दिख रही है. देश में आपदा प्रबंधन का पूरा तंत्र जिस तरह से आपदा आने के बाद ही सक्रिय हुआ करता है वह भी अपने आप में बहुत दुर्भाग्य पूर्ण है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारें आपदा प्रबन्ध पर बहुत कुछ करने का दावा सदैव ही करती रहती हैं पर जब भी ऐसी किसी स्थिति का सामना करना पड़ता है तो सारी तैयारियां फेल ही दिखाई देती हैं और जब तक सेना नागरिक प्रशासन की मदद के लिए आगे नहीं आती है तब तक राहत कार्यों में तेज़ी दिखाई ही नहीं पड़ती है ? यदि नागरिक प्रशासन इतना ही नाकारा है तो क्यों नहीं सरकार आपदा प्रबंधन का पूरा बजट ही सेना को स्थानांतरित कर देती है क्योंकि उससे कम से कम ऐसी किसी भी परिस्थिति में सेना को नागरिक प्रशासन की अनुमति या निवेदन की बाट तो नहीं जोहनी पड़ेगी ?
                                    भारतीय सेना ने अपने कौशल का लोहा पूरी दुनिया में मनवा रखा है और ऐसी स्थिति में जब सेना को भी काम करने के लिए पूरी छूट तब मिलती है जब राज्य सरकारें पूरी तरह से असहाय नज़र आती हैं तो उस स्थिति में अपने से पहल करके सेना पहले ही बहुत सारी क़ीमती जानों को बचा भी सकती है ? पर केवल राजनैतिक निर्णयों और उलझनों में फँसी हुई नौकरशाही किस तरह से अपने इतने बड़े बजट को सेना के हवाले करना चाहेगी क्योंकि यह एक ऐसा मद होता है जिसमें धन का आवंटन तो बहुत बड़े स्तर पर किया जाता है पर किसी पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं डाली जाती है और इस पूरे खेल में भ्रष्टाचार को पनपने का पूरा अवसर मिला करता है ? यदि इस तरह की किसी भी क़वायद को सेना के हवाले कर दिया जाए तो राज्य सरकारों और नौकरशाही के हाथों से सब कुछ निकल ही जायेगा जो कि वे कभी भी नहीं चाहेंगे. सेना अपने कामों में एक हद तक ही दखल बर्दाश्त कर सकती है और उनके पास जिस तरह से कौशल युक्त सैनिक और वाहन होते हैं उसके लिए यह सब काम करना मुश्किल नहीं होता है. निर्णय लेने में कमज़ोर रहने वाले हमारे नेता आख़िर कब इस तरह की परिस्थितियों में केवल राहत और बचाव पर सही ध्यान देने में सक्षम नीतियों पर काम करना सोच पाएंगें ?      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

2 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गूगल की नई योजना "प्रोजेक्ट लून"....ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. sahi kaha aapne desh me kushal hathon ki kami nahi hai bas unhe kuchh karne ki chhoot sarkar nahi dena chahti ..karan saf hai usase kamaya jane vala paisa ...ab jabki ye sabit ho chuka hai ki sthaneey prashashan nakara hai sena ko adhikaar dena hi chahiye ..badiya vichar ..badiya aaklan ..

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