मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 13 जुलाई 2013

रज़िया सुल्तान की उपलब्धि

                                                      यूपी में जहाँ से अच्छी और सामजिक सरोकार से जुड़ी ख़बरें आने का सिलसिला लगभग बंद ही हो चुका है वहां मेरठ के जानी विकास खंड के नगला कुम्भा गाँव में सुबह कुछ नयी तरह से ही आई जब इस गाँव की बेटी रज़िया सुल्तान ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा बाल अधिकारों के लिए दिए जाने वाले पहले मलाला युसुफजई पुरूस्कार को प्राप्त किया. वैसे कहने को तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि है पर जिन परिस्थितियों में रज़िया ने अपने साथ साथ बाल मज़दूरी करने वाले अन्य बच्चों को इस दल दल से निकाल कर एक नए रास्ते पर चलने का संकल्प लिया उसकी तारीफ़ आज पूरी दुनिया में हो रही है. बचपन में पांच वर्ष की उम्र से ही वह अपने परिवार के साथ फुटबॉल बनाकर आर्थिक रूप से कुछ कमाने की चाह में लगी रहती थी पर जब उस पर एक स्वयं सेवी संता बचपन बचाओ की नज़र पड़ी तो उसने रज़िया के लिए शिक्षा की व्यवस्था की और उसे बल श्रम करने से मुक्ति भी मिली पर रज़िया ने इसे अपने तक ही सीमित नहीं रखा और आगे बढ़कर इस तरह से बाल मजदूरी करने वाले अन्य बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया और अपने आस पास के गाँवों में बाल मजदूरी को बिलकुल बंद ही करवा दिया.
                                                   हर बात में सरकारी योजनाओं और आर्थिक संसाधनों का रोना रोने वाले लोगों के लिए रज़िया एक प्रेरणा बन चुकी है क्योंकि यदि समाज खुद इन बच्चों के बारे में कुछ सोचना शुरू कर दे तो आने वाले समय में पढ़ने की उम्र में बच्चों को किसी भी तरह की मज़दूरी करने से रोका भी जा सकता है पर जब तक इसके लिए समाज में जागरूकता नहीं होगी और इन बच्चों के मन में भी यह संकल्प नहीं होगा कि उन्हें बाल मजदूरी से दूर रहकर अपने को आगे बढ़ाने का प्रयास करना ही है ? कमज़ोर आर्थिक स्थितियों के कारण आज समाज में हर जगह इस तरह से घरेलू या अन्य काम करने वाले बच्चों को पूरी दुनिया में ही देखा जा सकता है क्योंकि आज की मंहगाई और अन्य विपरीत परिस्थितियों बड़े परिवारों को पालना आसान काम नहीं रह गया है जिसके चलते भी कई बार परिवार के बच्चों को उनके घर वाले ही इस तरह से बाल श्रम की अंधी सुरंग में धकेल देते हैं. इस तरह का काम केवल वहीं पर सफलता पूर्वक किया जा सकता है जहाँ पर बच्चों के अभिभावक इसके लिए मंज़ूरी दें वरना यह काम केवल दबाव से नहीं चलाया जा सकता है.
                                                    भारतीय परिस्थितियों में आज भी गरीबी और अशिक्षा के चलते परिवार सीमित नहीं हुआ करते हैं जिससे भी परिवार के मुखिया पर बहुत अधिक आर्थिक भार पड़ता है और जिसका सीधा असर उन बच्चों पर ही पड़ता है जो किसी भी तरह से कुछ करने लायक हो चुके होते हैं और उन्हें ही आगे बढ़कर खुद के परिवार को चलाने के लिए अपने भविष्य दांव पर लगाना ही पड़ता है. ऐसा नहीं है कि यदि इन सभी बच्चों को पढ़ाई का अवसर मिले तो ये कुछ नहीं कर सकते हैं पर आज भी ये अपने अभिभावकों की अशिक्षा के कारण अपने को अशिक्षित रखने के लिए मजबूर हैं और आज की परिस्थिति में इन्हें जिस तरह से सामाजिक सरोकारों से बाँधने की ज़रुरत है उसके स्थान पर सरकारें इनकी समस्या को केवल ऊपरी स्तर पर ही ठीक करना चाहती है जिससे भी समस्या की जड़ तक पहुँचने में समस्या आती है. कोई भी सामाजिक कार्य बिना समाज की सहभागिता के आगे नहीं बढ़ सकता है पर जब हम उसे केवल एक कल्याणकारी योजना के रूप में ही देखने लगते हैं तो पूरा मामला उलट जाया करता है. इसके लिए समाज से अशिक्षा को दूर करने का प्रयास करना ही होगा जिससे हमारा बच्चे मलाला युसुफजई पुरुस्कार पाने के स्थान पर विज्ञान के बड़े पुरूस्कार और सम्मान जीत सकें.
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