पिछले कुछ दशकों से जिस तरह से देश के नेताओं में कुछ भी कह देने की होड़ से मची हुई है उसमें यही लगता है कि आज के समय में कुछ ऐसा परिवर्तन आ गया है कि नेता होने के बाद कोई भी कितना भी निरंकुश हो सकता है ? देश के नेताओं के सामने से आज विकास और सामजिक मुद्दे गायब से हो गए हैं और उन्हें केवल अपनी आँखों पर लगे अपने दल की नीतियों से लगे हुए विशेष चश्में से ही दुनिया को देखने की जो आदत लग गई है वह कहीं से भी देश का भला करने वाली साबित नहीं होने वाली है. किसी का भी व्यक्ति, समाज, विचारधारा या राजनैतिक दल से असहमत होना एक बात है पर आज जिस तरह से असहमति का जो स्वरुप दिखाई देने लगा है उससे यही लगता है कि कहने के लिए तो हम एक शिक्षित और सभ्य समाज हैं पर जब हमारे अपने बर्ताव की बातें होती हैं तो हम उन अशिक्षित लोगों को भी पीछे छोड़ देते हैं जिन्हें हम कहीं से भी अपने बराबर नहीं मानते हैं ? आख़िर क्या कारण है कि देश को जिस तरह से आगे बढ़ना चाहिए उसके स्थान पर नेता लोग इसे अपने हिसाब से आगे खिसकाने की कोशिशें करते नज़र आते हैं ?
पिछले कुछ समय से तकनीक का जिस तरह से विकास हुआ है उसमें नेताओं द्वारा भी इसका उपयोग किया जाने लगा है और अपने हितों को साधने के लिए जिस तरह से नेताओं के समर्थकों द्वारा समाज के विभिन्न विषयों और वर्गों पर अशोभनीय टिप्पणियाँ की जाती हैं उससे किस तरह से समाज और देश का भला हो सकता है यह बताने के लिए कोई भी तैयार नहीं है बस केवल किसी भी तरह से अपनी बात को सही साबित करने की एक होड़ आज के पढ़े लिखे और सभ्य समाज में आ चुकी है ? किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर नेट पर किसी भी सार्वजनिक फोरम को कुछ देर तक पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि वहां पर जो लोग अपनी शिक्षा और सभ्यता का ढिंढोरा पीटते हैं उनकी मानसिक दशा तो मनोरोगियों जैसी है और उन्हें समाज के हित में सुधरना या सुधारना ही होगा क्योंकि आज जिस नेट पर बहुत कम संख्या में पाठकों के कारण आम लोगों तक उनकी दुर्भावनाएं नहीं पहुँच पाती हैं कल को उसका अधिक प्रसार होने की दशा में समाज में चल रहे इस विद्वेष से किस तरह से पार पाया जायेगा ?
सोशल मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर निरंकुश हो रहे कुछ कथित मनीषियों और बौद्धिक विद्वानों को यह लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह सब ठीक ही है पर जब यह प्रक्रिया कहीं से समाज पर असर डालने लगती है तो सरकारों को मजबूरी में आगे बढ़कर कुछ करना पड़ता है और तब उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहकर सरकार पर आरोप लगाया जाता है कि वह सोशल मीडिया की आज़ादी के बारे में ग़लत सोचती है ? इस तरह की सार्वजनिक फोरम चलाने वाले समूहों को केवल पाठक संख्या के स्थान पर अपनी ज़िम्मेदारियों को समझते हुए किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने खाते को खोलने की प्रक्रिया को और सख्त करना चाहिए जिससे यह देखा जा सके कि फ़र्ज़ी नामों से बनायीं गई झूठी पहचान से आग उगलने वाले ये लोग कहीं न कहीं से देश में विद्वेष बढ़ाने का काम ही कर रहे हैं ? जिस व्यक्ति को किसी मुद्दे पर अपने विचार रखने हैं तो वह इतने आत्म बल के साथ सामने आये कि वह अपनी पहचान के साथ अपनी बात कह सके क्योंकि जिस तरह से फ़र्ज़ी नामों से वे अपनी बात कहा करते हैं यदि वे सही होते तो अपनी बात को कहने के लिए किसी और के नाम का सहारा ही क्यों लेते ? जिन लोगों में इतना साहस ही नहीं बचा है कि वे कुछ सही कह सकें तो उन लोगों पर यदि आने वाले समय में कोई अंकुश लगता है तो उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
पिछले कुछ समय से तकनीक का जिस तरह से विकास हुआ है उसमें नेताओं द्वारा भी इसका उपयोग किया जाने लगा है और अपने हितों को साधने के लिए जिस तरह से नेताओं के समर्थकों द्वारा समाज के विभिन्न विषयों और वर्गों पर अशोभनीय टिप्पणियाँ की जाती हैं उससे किस तरह से समाज और देश का भला हो सकता है यह बताने के लिए कोई भी तैयार नहीं है बस केवल किसी भी तरह से अपनी बात को सही साबित करने की एक होड़ आज के पढ़े लिखे और सभ्य समाज में आ चुकी है ? किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर नेट पर किसी भी सार्वजनिक फोरम को कुछ देर तक पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि वहां पर जो लोग अपनी शिक्षा और सभ्यता का ढिंढोरा पीटते हैं उनकी मानसिक दशा तो मनोरोगियों जैसी है और उन्हें समाज के हित में सुधरना या सुधारना ही होगा क्योंकि आज जिस नेट पर बहुत कम संख्या में पाठकों के कारण आम लोगों तक उनकी दुर्भावनाएं नहीं पहुँच पाती हैं कल को उसका अधिक प्रसार होने की दशा में समाज में चल रहे इस विद्वेष से किस तरह से पार पाया जायेगा ?
सोशल मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर निरंकुश हो रहे कुछ कथित मनीषियों और बौद्धिक विद्वानों को यह लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह सब ठीक ही है पर जब यह प्रक्रिया कहीं से समाज पर असर डालने लगती है तो सरकारों को मजबूरी में आगे बढ़कर कुछ करना पड़ता है और तब उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहकर सरकार पर आरोप लगाया जाता है कि वह सोशल मीडिया की आज़ादी के बारे में ग़लत सोचती है ? इस तरह की सार्वजनिक फोरम चलाने वाले समूहों को केवल पाठक संख्या के स्थान पर अपनी ज़िम्मेदारियों को समझते हुए किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने खाते को खोलने की प्रक्रिया को और सख्त करना चाहिए जिससे यह देखा जा सके कि फ़र्ज़ी नामों से बनायीं गई झूठी पहचान से आग उगलने वाले ये लोग कहीं न कहीं से देश में विद्वेष बढ़ाने का काम ही कर रहे हैं ? जिस व्यक्ति को किसी मुद्दे पर अपने विचार रखने हैं तो वह इतने आत्म बल के साथ सामने आये कि वह अपनी पहचान के साथ अपनी बात कह सके क्योंकि जिस तरह से फ़र्ज़ी नामों से वे अपनी बात कहा करते हैं यदि वे सही होते तो अपनी बात को कहने के लिए किसी और के नाम का सहारा ही क्यों लेते ? जिन लोगों में इतना साहस ही नहीं बचा है कि वे कुछ सही कह सकें तो उन लोगों पर यदि आने वाले समय में कोई अंकुश लगता है तो उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [15.07.2013]
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सादर
सरिता भाटिया