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बुधवार, 3 जुलाई 2013

यूपी- नेता, नियम और भ्रष्टाचार

                                    १५ महीनों की लम्बी उलझन के बाद आख़िर अखिलेश सरकार ने माया सरकार के सबसे प्रभावशाली मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी समेत बाबु सिंह कुशवाहा और रंगनाथ मिश्र पर आय से अधिक संपत्ति बनाने और पद के दुरूपयोग सम्बंधित मामलों में मुक़दमे दर्ज कर आगे बढ़ने की सतर्कता विभाग को अनुमति दे ही दी है. जिस तरह से माया सरकार में भी लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा ने कई मंत्रियों और सांसदों के ख़िलाफ़ इस तरह की संस्तुति की थी पर सरकार में इनके प्रभाव के कारण किसी भी तरह का कोई निर्णय सरकार द्वारा लिया ही नहीं गया था पर जब लोकायुक्त की रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो गयी कि इन मंत्रियों द्वारा पद का दुरुपयोग कर आय से अधिक व्यय को लगातार अंजाम दिया जाता रहा तो अखिलेश सरकार में इनके ख़िलाफ़ जांच को आगे बढ़ाने की अनुमति दे दी गयी है. लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गई किसी भी सरकार के पास क्या इतने अधिकार होते हैं कि वह किसी भी तरह से अपनी मनमानी को ही प्राथमिकता देने लगे और पूरे प्रशासनिक तंत्र को अपना ग़ुलाम बनाकर छोड़े ? कम से कम यूपी के पिछले बसपा राज में यह सवाल बहुत ही प्रासंगिक रहा है क्योंकि लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी सरकार ने लोकतंत्र स्थापित मानदंडों के साथ जितना खिलवाड़ किया वह किसी से भी छिपा नहीं है.
                                       देश में आज जिस तरह से नेताओं और अधिकारीयों के बीच भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सहमति दिखाई देने लगी है वह किसी भी तरह से आगे नहीं बढ़नी चाहिए क्योंकि जब तक यह ख़तरनाक गठजोड़ तोडा नहीं जायेगा तब तक विकास और अन्य कामों के लिए आये हुए धन की बंदरबांट और उसके दुरूपयोग को पूरी तरह से रोक नहीं जा सकेगा. इसके लिए आज संविधान और कानून द्वारा जो भी प्रावधान किए गए हैं वे अपने आप में पूरे तो हैं पर उन पर काम करने के लिए जांच एजेंसियों पर जिस तरह से हर जगह अनुमति लेने की प्रक्रिया भी निर्धारित की गई है आज उसकी का बहुत बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया जा रहा है जबकि भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में यदि सरकारें स्पष्ट संदेश जनता तक पहुँचाना चाहती हैं तो इसके लिए एक त्वरित जांच प्रक्रिया भी होनी चाहिए जिसके माध्यम से किसी भी नेता या अधिकारी पर आरोप लगने पर उसकी प्रथम दृष्टया जांच कराई जाए और किसी भी तरह की संदेहास्पद प्रक्रिया के मिलने पर बिना किसी अनुमति के ही जांच और मुक़दमें दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू करने का हक भी एजेंसी को दिया जाना चाहिए.
                                       जिन महत्वपूर्ण लोगों के नीचे ये जांच एजेंसियां काम किया करती हैं यदि उनके बारे में ही ऐसी शिकायतें हैं और वे माया सरकार जितने प्रभावी मंत्री हैं तो क्या किसी भी जांच अधिकारी के पास इतनी हिम्मत वर्तमान ढांचे में शेष बची है कि वह निष्पक्ष रूप से पूरी जांच कर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सके ? किसी दूसरी सरकार में शायद कोई अधिकारी अपनी असमति दिखाने का साहस भी कर सके पर माया सरकार में जिस तरह से तानाशाही चला करती है और देश के संविधान की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं उस परिस्थिति में कोई भी अधिकारी कैसे निष्पक्ष होकर अपना काम कर सकता है ? कानून के अनुसार जांच एजेंसियों को काम करने की पूरी छूट भी होनी चाहिए पर साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि सत्ता परिवर्तन के बाद आई हुई नई सरकार भी किसी विद्वेष या अपने हित साधने के लिए किसी नेता पर ऐसा आरोप तो नहीं लगा रही है क्योंकि आज की राजनीति के घटिया स्वरुप में यह भी संभव है कि किसी तेज़ तर्रार प्रभावशाली नेता का कैरियर समाप्त करने के लिए भी इस तरह की जांचों में उसे उलझा दिया जाए और कानून को अपना काम ही न करने दिया जाए ?      
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