मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

फर्जी मुठभेड़ और इशरत

                         लगता है देश के कथित मानवाधिकार वादियों को अभी भी बहुत कुछ सीखना है क्योंकि जिस तरह से इशरत जहाँ मामले में कांग्रेस और भाजपा की राजनैतिक लड़ाई ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ों पर एक बार फिर से नेताओं द्वारा की जाने वाली राजनीति को उजागर किया है वहीं दूसरी तरफ़ यह भी साबित किया है कि मानवाधिकार की बातें करने वाले कितनी आसानी से राजनेताओं के कामों को अंजाम दिया करते हैं ? आज इस बात पर ही सारा दोष गुजरात पुलिस और आईबी पर मढ़ा जा रहा है कि उन्होंने व्यापक तहकीकात किए बिना ही यह मुठभेड़ फ़र्ज़ी तरह से की जबकि अमेरिका में हेडली से पूछ-ताछ में इशरत के भी लश्कर के स्लीपिंग मोड्यूल होने की बात सामने आती दिखा रही है ? फ़र्ज़ी मुठभेड़ करे में पूरे देश में हर राज्य की पुलिस को महारत हासिल है पर जिस तरह से इस मुठभेड़ को ही विवाद के केंद्र में रखने की बात की जा रही है उससे आईबी और सुरक्षा बलों के मनोबल पर आतंकियों से निपटते समय क्या बीतेगी कभी किसी ने यह भी सोचा है ? फ़र्ज़ी मुठभेड़ का किसी भी स्तर पर सभी समाज में समर्थन नहीं किया जा सकता है पर जब देश को अस्थिर करने में लगे हुए आतंकियों से निपटना हो तो मानवाधिकार की बातें की ही नहीं जानी चाहिए.
                        आज भी कश्मीर में राजनेता और अलगाववादी समूहों के नेता यदि चैन से रह पा रहे हैं तो वह भी केवल सेना और पुलिस के कारण ही क्योंकि बिना उनके वहां पर किसी भी थोड़ी सी भी मशहूर शख्शियत का जिंदा रह पाना आतंकियों का रहमो-करम पर ही होता है ऐसे में यदि कोई माई का लाल है तो वह बिना भारतीय सुरक्षा बलों के कश्मीर में अपनी बात को कहकर भी दिखा दे ? सेना और ख़ुफ़िया तंत्र पर ऊँगली उठाना बहुत आसान होता है पर जब सामने से गोली आती हुई दिखाई देती है तो सच्चे सैनिक केवल अपनी जान बचाने के स्थान पर पहले निर्दोषों को बचाने की कोशिशें करते हैं पर जिन मानवाधिकार वादियों को सैनिक हत्यारे लगते हैं उनको यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि जब आतंकी आम लोगों की वेश भूषा में नागरिकों पर हमला करते हैं तो क्या पहले उनकी छान बीन की जानी चाहिए फिर उनके आरोप साबित कर उन्हें गोली मारनी चाहिए ? बहुत ही बे-शर्म हैं ऐसे लोग जो किसी भी आतंकी हमले पर तुरंत देश के सुरक्षा तंत्र पर विफलता के आरोप लगा दिया करते हैं पर आतंकियों द्वारा किये गए किसी हमले की कड़े शब्दों में निंदा करने के लिए उनके पास शब्द कम पड़ जाते हैं ?
                         देश में कितने ही स्थानों पर नेता अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए पता नहीं कितने निर्दोषों को मौत के घाट उतरवा देते हैं तब तो कोई उन मारे गए लोगों के लिए दो शब्द नहीं बोलता है और कोई उनकी पैरवी करने स्थानीय अधिकारियों के पास भी नहीं जाना पसंद करता है ? फिर इशरत के मामले में सभी को इतनी परवाह क्यों हो रही है मान भी लिया जाए कि वह निर्दोष थी तो वह पाकिस्तानी आतंकियों के साथ क्या कर रही थी ? क्या उन आतंकियों ने उसका अपहरण कर रखा था या वह भी बहुत कुछ अन्य भारतीय मुसलमानों की तरह आतंकियों की मौन समर्थक थी पर उसके दुर्भाग्य ने उससे जीने का हक़ बहुत जल्दी ही छीन लिया ? कश्मीर घाटी से कितने ही शहीद जवानों के पार्थिव शरीर देश भर में उनके निवास स्थानों पर आते रहते हैं कोई उनके कारणों पर विचार क्यों नहीं करना चाहता है ? इशरत हो या कोई अन्य भारतीय नागरिक हम सभ्य समाज का हिस्सा हैं और किसी भी निर्दोष नागरिक की फर्जी मुठभेड़ में हत्या को सही नहीं ठहरा सकते हैं पर इशरत जैसे नागरिक आख़िर आतंकियों के हाथों तक किस तरह से पहुँच रहे हैं इस समस्या पर न तो नेता और न ही मानवाधिकार वादी कुछ बोलना चाहते हैं क्योंकि शायद इससे उनकी चलती हुई दुकानों के बंद होने का ख़तरा बढ़ जाया करता है ?   
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