मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 8 जुलाई 2013

आतंक, एनआईए, एनसीटीसी और सुरक्षा

                                                   बोध गया में हुए कम तीव्रता के आतंकी विस्फोटों के हमलों के बाद जहाँ देश में एक बार फिर से राजनीति गरमाए जाने का काम शुरू किया जाने वाला है वहीं कोई भी इस बात पर विचार करने के लिए तैयार नहीं दिखता है कि आज भी किसी केन्द्रीय मज़बूत और प्रभावी आतंक रोधी एजेंसी का गठन जल्दी से जल्दी किया जाए. पूरी दुनिया में बढ़ते हुए विभिन्न तरह के आतंकी हमलों से सभी देश अपने को सुरक्षित रखने के लिए कड़े क़दम या तो बहुत पहले ही उठा चुके हैं या फिर वे उन्हें उठाने की प्रक्रिया में हैं पर भारत में जिस तरह से सदैव ही राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ किया जाता रहा है उस स्थिति में आज भी आतंक से निपटने के लिए हर राज्य के पास अपना एक लचर तंत्र है और उस बेकार और सड़े गले तंत्र के माध्यम से आधुनिक हथियारों और सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले आतंकियों से उस पुलिस को जूझना पड़ता है जिसकी कुछ पैसों के लिए अपना ईमान बेच देने की अनगिनत कहानियां रोज़ ही सुनाई देती हैं ? आधे अधूरे मन से उन गुरिल्ला आतंकियों से संघर्ष जो हमारे अपनों के चेहरों के पीछे ही छिपकर हम पर वार करने में नहीं चूक रहे हैं. 
                                          क्या देश इस तरह की तैयारियों के साथ ही आतंक से लड़ना चाहता है या फिर कोई मज़बूत प्रक्रिया अपनाकर सुरक्षा बलों को आधुनिक हथियार और बेहतर ट्रेनिंग के माध्यम से इन आतंकियों से लड़ने के लिए आगे करना चाहता है. जिस एनआईए का एक समय सभी संप्रग से बाहर की गैर कांग्रेसी राज्य सरकारें विरोध किया करती थीं आज वे एनसीटीसी के स्थान पर एनआईए को ही मज़बूत करना चाहती हैं ? आख़िर क्या कारण है जिसके चलते इन राज्य सरकारों को यह लगता है कि मज़बूत कानून से उनका कुछ नुक्सान हो जायेगा जबकि पूरे देश में केंद्र के अधीन काम करने वाली सेना तो अपने पूरे मनोयोग से हर प्रान्त और हर परिस्थति में आम लोगों को अपनी सेवाएं देकर राज्य सरकारों के काम को हल्का किया करती है तो एक ऐसे ही आतंक रोधी मज़बूत और बेहतर अधिकारों से लैस किसी केंद्र से आख़िर इन राज्यों के हित किस तरह से प्रभावित हो जाएंगें यह समझ से परे है फिर भी केवल राजनीति के चलते देश में नेताओं द्वारा अभी बहुत सारी उल्टी सीधी गतिविधियाँ करने में बहुत मज़ा आता है.
                                        इस बार जिस तरह से एनआईए द्वारा बोध गया पर इस तरह का हमला होने की आशंकाओं पर दिल्ली पुलिस के साथ मिलकर एडवाइजरी जारी की गयी थी पर बिहार सरकार ने उसे हलके में लिया यह उसी का असर है और यदि इस समय देश में एनसीटीसी पूरी तरह से प्रभावी होता तो उसके पास केवल एडवाइजरी जारी करने के आगे के अधिकार भी होते तो शायद कुछ अधिक चौकन्ना रहा जा सकता था पर देश में दलीय राजनीति को प्रश्रय देकर आगे बढ़ने वाले दल इस तरह के किसी भी तंत्र को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं. पिछले महीने एनसीटीसी का डटकर विरोध करने वाले नितीश को भी अब यह पता चल गया होगा कि राज्यों के पास क्या संसाधन हैं और वे किस तरह से काम कर सकते हैं क्योंकि सूचना के बाद भी राज्य की पुलिस ने कोई तैयारी ही नहीं की थी और आतंकी अपने मंसूबे में कामयाब हो गए ? हो सकता है कि कम तीव्रता के इन विस्फोटों से आतंकी अपनी क्षमताओं और बिहार की सुरक्षा व्यवस्था को केवल परखना ही चाहते हों और आने वाले समय में इस कमी का लाभ उठकर वे किसी बड़ी घटना को अंजाम देने से भी न चूकें पर शायद केवल विरोध की राजनीति के चलते देश में ऐसा लम्बे समय तक चलता रहने वाला है.     
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