मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 28 सितंबर 2013

राहुल का हस्तक्षेप

                               सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी दागियों को सुरक्षा प्रदान करने वाले विवादित विधेयक के विरोध में जिस तरह से कांग्रेस पार्टी में बहुत बड़ी हैसियत रखने वाले राहुल गाँधी ने जो कुछ भी केवल तीन मिनट में कहा उससे देश में एक नए विवाद को हवा मिल गयी है. राहुल ने राष्ट्रपति के पास पहुंचे हुए इस विधेयक को बकवास करार देते हुए जिस तरह से इसे फाड़कर फेंकने की सलाह दे डाली उसके बाद से संभवतः देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी विधेयक के अध्यादेश के रूप में लागू होने के इतने करीब पहुँच जाने के बाद उसका यह हश्र हुआ है ? वैसे देखा जाये तो राहुल ने पार्टी स्तर पर अपनी जो भी राय व्यक्त की है उससे किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए और जिस विवादित विधेयक के विरोध में उन्होंने इतने कड़े तेवर दिखाए हैं उससे भी उनकी छवि जनता की नज़रों में कुछ बेहतर हो सकती है पर सीधे पीएम और अपनी ही पार्टी के द्वारा बनाये जा रहे विधेयक के बारे में ऐसा कहने से क्या पार्टी और पीमे की छवि को कोई नुक्सान भी हो सकता है यह अभी भी विचारणीय है.
                               वैसे देखा जाये तो इस विधेयक के समर्थन में दबी ज़बान में सारे ही राजनैतिक दल खड़े हुए थे और उनकी मंशा जाने के बाद ही सरकार ने इस तरह के प्रयास की तरफ आगे बढ़ने की कोशिश की थी पर जिस तरह से अध्यादेश को आगे बढ़ाने के साथ ही भाजपा ने इसका साथ छोड़ दिया और प्रणब मुखर्जी से इस पर हस्ताक्षर न करने की मांग की तो उसके बाद से ऐसा लगने लगा था कि अब इस अध्यादेश में नेताओं की लड़ाई से आगे पार्टी की लड़ाई शुरू होने वाली है. मिलिंद देवड़ा के तेवर देखकर कल ही इस बात का आभास हो गया था कि कहीं न कहीं से कांग्रेस ने इस अध्यादेश को लेकर अपने प्लान बी पर भी काम करना शुरू कर दिया है पूरे घटनाक्रम में जिस तरह से राहुल ने हस्तक्षेप किया और अपनी असहमति दिखाई उससे विपक्ष के पास इस पर राजनीति करने का कोई मौका नहीं बचा है और अब वह पीएम से इस्तीफे की मांग करने की तरफ बढ़ गया है यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि यदि किसी राजनैतिक कारण से कोई गलत विधेयक पारित होने या अध्यादेश जारी होने के कगार पर हो तो क्या उसका विरोध पार्टी स्तर पर किया जाने पीएम का अपमान है ?
                                अपने राजनैतिक लाभ हानि के लिए विपक्षी दल तो पीएम पर इस्तीफ़ा देने का दबाव बनाने वाले ही हैं पर जब तक उन्हें सोनिया का समर्थन हासिल है उन्हें किसी भी तरह से विचलित होने की आवश्यकता भी नहीं है और उन्होंने वाशिंगटन से अपने मंतव्य को स्पष्ट भी कर दिया है. यहाँ पर सवाल भारतीय राजनीति में व्याप्त उस गंदगी का है जिसके कारण हर मौके का लाभ उठाने की कोशिश की जाती है जब यह अध्यादेश इतना ही बुरा था तो भाजपा पहले इसका समर्थन किस नैतिक आधार पर कर रही थी और जब उसे लगा कि इस मुद्दे पर अपने को अलग कर राजनैतिक रोटियां सेंकने का काम किया जा सकता है तो उसने अपने को से मुद्दे से पूरी तरह अलग ही कर लिया और कांग्रेस को उसके हाल पर छोड़ दिया. कांग्रेस की राजनैतिक मजबूरी यह है कभी है कि भाजपा के सहयोग के बिना यह विधेयक अपने स्वरुप को नहीं पा सकता था इसलिए उसने भी राहुल के बहाने से पूरे मसले पर पानी डालने  का काम कर भाजपा के हाथों एक बड़ा मुद्दा ही छीन लिया है. अब इस मुद्दे को छोड़कर भाजपा के पास पीएम की गरिमा को ठेस पहुँचाने की कोशिशें करते हुए देखा जा सकता है क्योंकि देश में भले ही यह एक बड़ा मुद्दा हो पर विदेश यात्रा पर गए पीएम के संवैधानिक राष्ट्र प्रतिनिधि होने की गरिमा को इस विवाद से जोड़ा जाना कहाँ तक उचित है इसका जवाब कोई नहीं देना चाहता है.        
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