देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जिस तरह से नेताओं और उनके समर्थकों द्वारा बयानबाज़ी की जा रही है उससे यही लगता है कि अब नेता मुद्दों के बजाय केवल सनसनी फैलाकर कुछ हास्य के साथ अपनी बात को करने में अधिक विश्वास करने लगे हैं पर इस तरह से अपनी बात को कहने में उन्हें जितना संवेदनशील होना चाहिए आज वह सब नदारत ही दिखायी दे रहा है ? आखिर राजनीति में अभिव्यक्ति की यह आज़ादी इतने छिछले स्तर पर कैसे पहुँच गयी कि उसका इस तरह से कुछ भी कहने में इस्तेमाल किया जाने लगा. पहले दिल्ली में आप की एक सभा में जिस तरह से गृह मंत्री शिंदे के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया गया उससे यही पता चलता है कि आप अब उस स्तर पर अपने को बनाये रख पाने में मुश्किल महसूस कर रही है जिससे वह किसी के भी खिलाफ कुछ भी कहने से नहीं चूक रही है भले ही ऐसा सीधे आप द्वारा नहीं कहा गया हो पर उसकी जनसभा में यह कहा जाने और उपस्थित प्रत्याशी की चुप्पी पूरे मसले को स्पष्ट ही कर देती है. सपा के नरेश अग्रवाल ने भी मोदी पर चाय वाला बयान देकर अपनी मानसिक स्थिति का प्रदर्शन ही किया है क्योंकि देश में लोकतंत्र है और वह सभी नागरिकों को सभी तरह के समान अवसर देता है.
भाजपा के पीएम पद के घोषित प्रत्याशी नरेंद्र भाई मोदी ने जिस तरह से अब सोनिया की सेहत को लेकर टिप्पणियां करनी शुरू कर दी हैं और बात बात में राहुल पर कटाक्ष करते हुए मामा के यहाँ से पैसा आने के सवाल करने शुरू कर दिए हैं उससे यही लगता है कि वे अब बयानों में किसी भी हद तक जाने में विश्वास करते हैं क्योंकि २००७ के चुनावों में वे एक बार तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह के ईसाई होने को लेकर भी ताना कस चुके हैं जिसमें उनको सोनिया से निर्देश मिलने की बात उन्होंने की थी. आज मोदी बहस के स्तर को जितना नीचे ले जाने की कोशिश आकर रहे हैं उससे सम्भवतः उन्हें अपनी रैलियों के लिए कुछ मसाला मिल जाता हो और जनता भी कुछ देर इस पर हँस लेती हो पर देश के चुनावों पर नज़र रखने वाले विदेशी लोगों पर इस बात का क्या प्रभाव पड़ेगा और देश में भविष्य के लिए किस तरह के नेता सामने आ रहे हैं उस पर भी देश के सम्मान को क्या ठेस नहीं पहुंचेगी जो सामान्य मानवीय मूल्यों की भी परवाह नहीं कर सकते हैं ?
देश ही नहीं पूरी दुनिया में दुश्मन के भी हाल चाल पूछने की परंपरा रही है और सोनिया से मोदी के केवल राजनैतिक मत भिन्नता के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनको चुभता हो फिर भी वे उनकी बीमारी के बारे में इस तरह से सार्वजनिक रूप से बातें करके किस भारतीय परंपरा का पोषण कर रहे हैं यह तो वही जाने पर एक ज़माने में नेताओं में मत भिन्नता होने के बाद भी उनमें जितना सामंजस्य राजनीति से इतर हुआ करता था उस कारण भी देश की संसद और विधान मंडल सुचारु ढंग से चला करते थे पर आज के समय में जिस तरह से चुनाव प्रचार के दौरान ही बड़े और शीर्ष नेताओं द्वारा इतनी कटुता फैलायी जाती है तो सदन में पहुँचने वाले सदस्य दूसरे दलों के लोगों को अपने दुश्मन ही अधिक समझते हैं ? क्या देश आज जब विश्व में अपने बड़े स्थान को पाने के लिए आगे बढ़ रहा है तो इस तरह के किसी भी प्रयास से उनके आगे बढ़ने की गति पर असर नहीं पड़ेगा ? देश की वर्तमान लोकसभा केवल काम न करने के लिए ही जानी जायेगी और जब इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें सरकार और विपक्षी दलों की भूमिका भी लिखी जायेगी और नेताओं के व्यवहार को सच्चाई से लिख पाना आसान भी नहीं होगा. मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
भाजपा के पीएम पद के घोषित प्रत्याशी नरेंद्र भाई मोदी ने जिस तरह से अब सोनिया की सेहत को लेकर टिप्पणियां करनी शुरू कर दी हैं और बात बात में राहुल पर कटाक्ष करते हुए मामा के यहाँ से पैसा आने के सवाल करने शुरू कर दिए हैं उससे यही लगता है कि वे अब बयानों में किसी भी हद तक जाने में विश्वास करते हैं क्योंकि २००७ के चुनावों में वे एक बार तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह के ईसाई होने को लेकर भी ताना कस चुके हैं जिसमें उनको सोनिया से निर्देश मिलने की बात उन्होंने की थी. आज मोदी बहस के स्तर को जितना नीचे ले जाने की कोशिश आकर रहे हैं उससे सम्भवतः उन्हें अपनी रैलियों के लिए कुछ मसाला मिल जाता हो और जनता भी कुछ देर इस पर हँस लेती हो पर देश के चुनावों पर नज़र रखने वाले विदेशी लोगों पर इस बात का क्या प्रभाव पड़ेगा और देश में भविष्य के लिए किस तरह के नेता सामने आ रहे हैं उस पर भी देश के सम्मान को क्या ठेस नहीं पहुंचेगी जो सामान्य मानवीय मूल्यों की भी परवाह नहीं कर सकते हैं ?
देश ही नहीं पूरी दुनिया में दुश्मन के भी हाल चाल पूछने की परंपरा रही है और सोनिया से मोदी के केवल राजनैतिक मत भिन्नता के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनको चुभता हो फिर भी वे उनकी बीमारी के बारे में इस तरह से सार्वजनिक रूप से बातें करके किस भारतीय परंपरा का पोषण कर रहे हैं यह तो वही जाने पर एक ज़माने में नेताओं में मत भिन्नता होने के बाद भी उनमें जितना सामंजस्य राजनीति से इतर हुआ करता था उस कारण भी देश की संसद और विधान मंडल सुचारु ढंग से चला करते थे पर आज के समय में जिस तरह से चुनाव प्रचार के दौरान ही बड़े और शीर्ष नेताओं द्वारा इतनी कटुता फैलायी जाती है तो सदन में पहुँचने वाले सदस्य दूसरे दलों के लोगों को अपने दुश्मन ही अधिक समझते हैं ? क्या देश आज जब विश्व में अपने बड़े स्थान को पाने के लिए आगे बढ़ रहा है तो इस तरह के किसी भी प्रयास से उनके आगे बढ़ने की गति पर असर नहीं पड़ेगा ? देश की वर्तमान लोकसभा केवल काम न करने के लिए ही जानी जायेगी और जब इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें सरकार और विपक्षी दलों की भूमिका भी लिखी जायेगी और नेताओं के व्यवहार को सच्चाई से लिख पाना आसान भी नहीं होगा. मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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