जिस तरह से लोक लुभावे नीतियों के कारण देश में विभिन्न पेट्रो उत्पादों की कीमतों में आज बड़ा अंतर दिखायी देने लगा है उसका सीधा असर इनकी गुणवत्ता पर ही पड़ रहा है क्योंकि किसी भी परिस्थिति में आज हर क्षेत्र में लगे हुए व्यापारी अधिक लाभ कमाने में लगे हुए हैं. इस दिशा में लम्बे समय से लंबित गुणवत्ता से जुड़े सुधारों को लागू करने में जिस तरह से पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने अब तेल कम्पनियों को स्पष्ट निर्देश जारी किये हैं कि वे इस तरह से पेट्रोलियम पदार्थों को कम मात्रा में वितरित करने या फिर मिलावट के साथ बेचने से रोकने के लिए क्या कदम उठा सकती हैं ? इस मामले में उन्होंने हाल में ही संसदीय समितियों की आयी हुई सिफारिशों के आधार पर कड़े नियम तय करने की बात कही है क्योंकि आज के नियमों में जिस तरह से मिलावट को रोकने में सरकार पूरी तरह से नाकाम ही साबित हो रही है उससे कालाबाज़ारी बढ़ने के साथ पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है जिससे निपटने के लिए अब हर हाल में कड़े कदमों को उठाये जाने की आवश्यकता सामने आ गयी है.
देश की घटिया और लोक लुभावन राजनीति के बीच भी जिस तरह से पेट्रोल के बाद डीज़ल के दामों में बाज़ार के अनुसार सुधारात्मक कदम उठाये गए हैं उससे आने वाले समय में उपभोक्ताओं को सही दामों में तेल उत्पाद मिल सकेंगें इसकी तो पूरी सम्भावनाएं बन गयी हैं पर जिस तरह से आज भी केरोसिन के दामों को कृत्रिम रूप से नीचे रखने की राजनीति का तोड़ नहीं मिल पाया है उसके बिना बहुत सारी कवायद बेकार ही साबित होने वाली है. कोई भी सरकार केरोसिन के दाम सिर्फ इसलिए ही नहीं बढ़ा सकती है कि उसको विपक्षी दल गरीब विरोधी साबित करने में लग जाते हैं जबकि धरातल पर आज स्थिति यह है कि जिन गरीबों के नाम पर यह योजना चल रही है उन्हें इसका कोई लाभ मिल ही नहीं पाता है क्योंकि आज भी हमारी पीडीएस में इतनी खामियां भरी पड़ी हैं कि उन्हें भी सुधारे बिना कुछ सही नहीं हो सकता है. सबसे बड़ी समस्या यह भी आती है कि इन मुद्दों पर राज्य और केंद्र की राजनीति आपस में टकरा जाया करती है और देश पिछड़ जाया करता है.
पेट्रोलियम क्षेत्र में जिस तरह से संप्रग-दो सरकार ने कड़े कदम उठाते हुए सुधारात्मक प्रयास शुरू किये हैं यदि उनको निष्ठा के साथ लागू किया जाता रहा और उन पर चरण बद्ध तरीके से आगे बढ़ा गया तो कम से कम डीज़ल, पेट्रोल और घरेलू गैस में तो काफी सुधार हो ही जायेगा पर केरोसीन के मुद्दे को अभी भी सुलझाना बाकी है. जिस तरह से लोक लुभावन राजनीति को दरकिनार करते हुए मनमोहन सरकार ने डीज़ल के दामों को अगले कुछ महीनों में बाज़ार आधारित करने का जो पैमाना तय किया है उसकी यदि यही चाल रही तो सम्भवतः अगले डेढ़ साल में यह बाज़ार के दामों पर पहुँच जायेगा. इस क्षेत्र में बड़े सुधार की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि सरकार अब इस स्थिति में भी नहीं है कि पहले कर के रूप में धन जुटाए और उसे इस तरह से अनावश्यक सब्सिडी पर बर्बाद भी करे ? देश के कई क्षेत्रों में सुधार के लिए अब राष्ट्रीय नीतियों को सर्वदलीय समितियों में तय किये जाने की आवश्यकता है और इसे पहले पार्टी स्तर पर तय किया जाये और फिर विभिन्न दलों के सांसद अपनी समितियों में इनको लागू करवाने के लिए सरकार को सुझाव दें पर भारत में यह दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि हम उसी देश में रहते हैं जो विश्व के सर्वाधिक दक्ष और सम्मानित अर्थशास्त्री के पीएम रहते हुए भी उनको कोई काम सिर्फ अपनी घटिया राजनीति के चलते नहीं करने देते हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
देश की घटिया और लोक लुभावन राजनीति के बीच भी जिस तरह से पेट्रोल के बाद डीज़ल के दामों में बाज़ार के अनुसार सुधारात्मक कदम उठाये गए हैं उससे आने वाले समय में उपभोक्ताओं को सही दामों में तेल उत्पाद मिल सकेंगें इसकी तो पूरी सम्भावनाएं बन गयी हैं पर जिस तरह से आज भी केरोसिन के दामों को कृत्रिम रूप से नीचे रखने की राजनीति का तोड़ नहीं मिल पाया है उसके बिना बहुत सारी कवायद बेकार ही साबित होने वाली है. कोई भी सरकार केरोसिन के दाम सिर्फ इसलिए ही नहीं बढ़ा सकती है कि उसको विपक्षी दल गरीब विरोधी साबित करने में लग जाते हैं जबकि धरातल पर आज स्थिति यह है कि जिन गरीबों के नाम पर यह योजना चल रही है उन्हें इसका कोई लाभ मिल ही नहीं पाता है क्योंकि आज भी हमारी पीडीएस में इतनी खामियां भरी पड़ी हैं कि उन्हें भी सुधारे बिना कुछ सही नहीं हो सकता है. सबसे बड़ी समस्या यह भी आती है कि इन मुद्दों पर राज्य और केंद्र की राजनीति आपस में टकरा जाया करती है और देश पिछड़ जाया करता है.
पेट्रोलियम क्षेत्र में जिस तरह से संप्रग-दो सरकार ने कड़े कदम उठाते हुए सुधारात्मक प्रयास शुरू किये हैं यदि उनको निष्ठा के साथ लागू किया जाता रहा और उन पर चरण बद्ध तरीके से आगे बढ़ा गया तो कम से कम डीज़ल, पेट्रोल और घरेलू गैस में तो काफी सुधार हो ही जायेगा पर केरोसीन के मुद्दे को अभी भी सुलझाना बाकी है. जिस तरह से लोक लुभावन राजनीति को दरकिनार करते हुए मनमोहन सरकार ने डीज़ल के दामों को अगले कुछ महीनों में बाज़ार आधारित करने का जो पैमाना तय किया है उसकी यदि यही चाल रही तो सम्भवतः अगले डेढ़ साल में यह बाज़ार के दामों पर पहुँच जायेगा. इस क्षेत्र में बड़े सुधार की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि सरकार अब इस स्थिति में भी नहीं है कि पहले कर के रूप में धन जुटाए और उसे इस तरह से अनावश्यक सब्सिडी पर बर्बाद भी करे ? देश के कई क्षेत्रों में सुधार के लिए अब राष्ट्रीय नीतियों को सर्वदलीय समितियों में तय किये जाने की आवश्यकता है और इसे पहले पार्टी स्तर पर तय किया जाये और फिर विभिन्न दलों के सांसद अपनी समितियों में इनको लागू करवाने के लिए सरकार को सुझाव दें पर भारत में यह दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि हम उसी देश में रहते हैं जो विश्व के सर्वाधिक दक्ष और सम्मानित अर्थशास्त्री के पीएम रहते हुए भी उनको कोई काम सिर्फ अपनी घटिया राजनीति के चलते नहीं करने देते हैं ?
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