देश में पिछले एक दशक में जिस तरह से विभिन्न तरह के टीवी चॅनेल्स की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है उससे इस बात का ख़तरा भी बढ़ता जा रहा है कि इनके लिए कोई नियामक संस्था न होने के कारण ये कई मसलों पर ऐसा काम कर जाते हैं जिसको किसी भी तरह से देश, समाज के हित में नहीं कहा जा सकता है ? इस मामले पर हिन्दू जागृति मंच की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी याचिका के जवाब में कोर्ट ने यह स्पष्ट रूप से समझते हुए इस मसले पर अपना पक्ष रखने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय, विधि एवं न्याय मंत्रालय के साथ संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को नोटिस जारी करते हुए अपना पक्ष रखने के लिए निर्देशित किया है. इस याचिका में यह मांग की गयी है कि देश में इस माध्यम के बढ़ते प्रभाव के बीच आज तक भी इस पर नज़र रखने और कानून का उल्लंघन करने पर निर्माता और प्रसारक को दण्डित किये जाने या उसके खिलाफ कोई कार्यवाही करने के बारे में स्पष्ट नियम या प्राधिकरण नहीं है.
देश में पहले से प्रिंट मीडिया के लिए प्रेस परिषद् और फिल्मों के लिए एक नियामक पहले से मौजूद है जो किसी भी समस्या के सामने आने पर उसका कानून सम्मत निर्णय करता है और फ़िल्म जगत में तो इस बोर्ड द्वारा प्रमाणपत्र लिए बिना फ़िल्म को बाज़ार में उतारा ही नहीं जा सकता है तो टीवी के लिए आखिर देश में ऐसा प्रावधान भी क्यों नहीं होना चाहिए ? कानूनी तौर पर अभी किसी को भी कोई आपत्ति होने पर वह केवल कोर्ट से ही इस तरह के मामले कोई न्याय पा सकता है पर यदि इसका कोई नियामक तय कर दिया जाए तो सबसे पहले अपने को पीड़ित समझने वाला व्यक्ति उससे अपनी शिकायत कर सकता है. कानूनी और नैसर्गिक न्याय के अनुसार यदि देखा जाये तो इस याचिका में कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि जब तक हर साधन को नियंत्रित करने की व्यवस्था देश में नहीं होगी तब तक इस तरह के मसले कोर्ट के सामने आते ही रहेंगें पर कुछ अतिउत्साही लोग इसे भी टीवी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में प्रचारित करने से नहीं चूकने वाले हैं.
इस पूरे मसले को सिर्फ एक नियामक के गठन से जोड़कर ही देखना चाहिए क्योंकि जब यह मामला कोर्ट में चलेगा तो निश्चित तौर पर और भी शिकायतें और सुझाव भी सामने आयेंगें पर उस परिस्थिति में जो भी सामने आये और कोर्ट जिस भी तरह का निर्देश जारी करें तो उस स्थिति में सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण हो जायेगा कि वह एक ऐसा नियामक बनाने की दिशा में पहल करे जो इस क्षेत्र से जुड़ी हुई शिकायतों पर ध्यान देकर शिकायत करने वाले की बातों को पूरी तरह से सुनकर अपना निर्णय देने में सक्षम हो सके. अच्छा हो कि इसमें एक बार में ही पूरी व्यवस्था को देखा जाये क्योंकि टीवी पर फिल्मों और प्रेस की तरह नियामक बनाया तो जा सकता है पर उसके लिए फिल्मों की तरह हर जगह नज़र रख पाना आसान नहीं होगा क्योंकि देश में जितनी भाषाओँ में प्रसारण चल रहा है उस पर नियंत्रण आसान नहीं होगा ? उस स्थिति में नियामक के पास आवश्यकता पड़ने पर किसी भी मसले को संदर्भित कर निर्णय कर सकने की क्षमता के साथ यह लचीलापन भी होना चाहिए कि वह इस उद्योग को अपने दम पर सामजिक समरसता के साथ बढ़ने का अवसर भी न कि एक दरोगा की तरह उसके लिए एक समस्या बनकर बैठ जाये.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
देश में पहले से प्रिंट मीडिया के लिए प्रेस परिषद् और फिल्मों के लिए एक नियामक पहले से मौजूद है जो किसी भी समस्या के सामने आने पर उसका कानून सम्मत निर्णय करता है और फ़िल्म जगत में तो इस बोर्ड द्वारा प्रमाणपत्र लिए बिना फ़िल्म को बाज़ार में उतारा ही नहीं जा सकता है तो टीवी के लिए आखिर देश में ऐसा प्रावधान भी क्यों नहीं होना चाहिए ? कानूनी तौर पर अभी किसी को भी कोई आपत्ति होने पर वह केवल कोर्ट से ही इस तरह के मामले कोई न्याय पा सकता है पर यदि इसका कोई नियामक तय कर दिया जाए तो सबसे पहले अपने को पीड़ित समझने वाला व्यक्ति उससे अपनी शिकायत कर सकता है. कानूनी और नैसर्गिक न्याय के अनुसार यदि देखा जाये तो इस याचिका में कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि जब तक हर साधन को नियंत्रित करने की व्यवस्था देश में नहीं होगी तब तक इस तरह के मसले कोर्ट के सामने आते ही रहेंगें पर कुछ अतिउत्साही लोग इसे भी टीवी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में प्रचारित करने से नहीं चूकने वाले हैं.
इस पूरे मसले को सिर्फ एक नियामक के गठन से जोड़कर ही देखना चाहिए क्योंकि जब यह मामला कोर्ट में चलेगा तो निश्चित तौर पर और भी शिकायतें और सुझाव भी सामने आयेंगें पर उस परिस्थिति में जो भी सामने आये और कोर्ट जिस भी तरह का निर्देश जारी करें तो उस स्थिति में सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण हो जायेगा कि वह एक ऐसा नियामक बनाने की दिशा में पहल करे जो इस क्षेत्र से जुड़ी हुई शिकायतों पर ध्यान देकर शिकायत करने वाले की बातों को पूरी तरह से सुनकर अपना निर्णय देने में सक्षम हो सके. अच्छा हो कि इसमें एक बार में ही पूरी व्यवस्था को देखा जाये क्योंकि टीवी पर फिल्मों और प्रेस की तरह नियामक बनाया तो जा सकता है पर उसके लिए फिल्मों की तरह हर जगह नज़र रख पाना आसान नहीं होगा क्योंकि देश में जितनी भाषाओँ में प्रसारण चल रहा है उस पर नियंत्रण आसान नहीं होगा ? उस स्थिति में नियामक के पास आवश्यकता पड़ने पर किसी भी मसले को संदर्भित कर निर्णय कर सकने की क्षमता के साथ यह लचीलापन भी होना चाहिए कि वह इस उद्योग को अपने दम पर सामजिक समरसता के साथ बढ़ने का अवसर भी न कि एक दरोगा की तरह उसके लिए एक समस्या बनकर बैठ जाये.
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