मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

श्रीलंका पर भारत का रुख

                                                  तमिल आतंक की भेंट चढ़े श्रीलंका में मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र सदैव ही श्रीलंका को दोषी ठहराता रहता है और पिछले दो वर्षों में भारत की अंदरूनी तमिल राजनीति के चलते भारत ने भी श्रीलंका का विरोध किया उसका कोई मतलब भी नहीं बनता था. भारत का सदैव से ही मानवाधिकारों को लेकर स्पष्ट रुख रहा है कि यह किसी भी देश का आंतरिक मामला होता है और किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संस्था या एजेंसी को उसमें अनावश्यक दखल देकर वहाँ की समस्यायों को बढ़ाने की कोशिशें नहीं करनी चाहिए. भारत में श्रीलंका के तमिल मुद्दे को लेकर तमिलनाडु में हमेशा से ही राजनीति होती रहती है क्योंकि आज भी वहाँ के कुछ राजनैतिक दल अपने को तमिल हितों का रक्षक मानते हुए श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखल देने से नहीं चूकते हैं. भारत को अपने क्षेत्रीय संतुलन के साथ सदैव ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को भी अच्छे से सँभालने का लम्बा अनुभव रहा है पर पिछले दो वर्षों में श्रीलंका के मामले में मनमोहन सरकार ने तमिल पार्टियों के दबाव में काम किया इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है.
                                               अमेरिका और जी ७/८ के देशों के साथ आज भी यही सबसे बड़ी समस्या है कि वे अपने लिए मानक कुछ और स्थापित करना चाहते हैं और दूसरों के लिए अलग तरह से सोचते हैं. अगर अमेरिकी हितों पर २६/११ से चोट पहुँचने पर वह इस्लामिक आतंकियों को कुचलने के लिए अफगानिस्तान में अपनी और नाटो सेना भेजे तो यह कहाँ से मानवाधिकार का पोषण होता है पर आज भी संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था को अमेरिका और उसके पिट्ठू देश अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं जबकि वहाँ पर लिए गए अधिकांश फैसले अपने आप में बहुत विवादित रहते हैं. क्रीमिया संकट को लेकर इन देशों की चिंता यूक्रेन के लिए अधिक है पर जो लोग रूस के साथ जा चाहते हैं उनके बारे में कुछ भी सोचना आवश्यक नहीं है क्योंकि वे उनके विरोधी रूस के समर्थक हैं ? जब यूएसएसआर का विघटन करना था तो इन देशों ने इसी तरह से जनता की आवाज़ को प्राथमिकता दी थी पर आज उनको अपने हितों पर जनता की आवाज़ अधिक वज़नदार नहीं लगती है ?
                                               भारत और श्रीलंका का सम्बन्ध हज़ारों वर्षों से रहा है और प्रभाकरन के तमिल ईलम की ज़िद ने श्रीलंका को कितने दशकों पीछे छोड़ दिया है इस पर कोई विचार नहीं करना चाहता है पर आतंक को कुचलने के लिए उसने जो कुछ भी किया उसकी जांच की मांग और उस पर प्रतिबन्ध लगाने की बातें करने में ये देश नहीं चूकना चाहते हैं जैसे मानवाधिकारों का ठेका केवल इन्हीं देशों के पास है और वे अपने अनुसार इसे जब और जैसे भी चाहें परिभाषित कर सकते हैं. भारत के लिए इस तरह के प्रस्तावों का विरोध करना और भी अधिक बनता है क्योंकि कल को ये देश भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत को रोकने के लिए आतंक से जूझते हुए हमारे देश के विरुद्ध ऐसे ही किसी प्रस्ताव को पारित कराने की कोशिशें करते नज़र आ सकते हैं. ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि भारत इन मसलों पर कड़ा रुख अपनाये और किसी भी परिस्थिति में किसी भी अंदरूनी क्षेत्रीय दबाव को अनदेखा करते हुए अपनी नीति पर ही चलने का प्रयास करता रहे क्योंकि कल को तमिल दल किसी वृहद्द तमिल ईलम की मांग भी कर सकते हैं जिसमें भारत के तमिलनाडु के हिस्से भी शामिल किये जा सकते हैं.     
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