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शनिवार, 26 जुलाई 2014

नेता प्रतिपक्ष और सदन

                                                                आज़ादी के बाद से ही देश में सरकार के साथ विपक्ष की भूमिका को सरकारी काम काज के सञ्चालन में महत्वपूर्ण मानते हुए जिस तरह से नेता प्रतिपक्ष की अवधारणा को संविधान में समाहित किया गया था तब से लेकर आज तक इस नियम के अंतर्गत कुछ भी खास परिवर्तन नहीं हुए हैं. १९५६ में पहली बार यह नियम बनाया गया था कि लोकसभा की कुल १०% या सत्ताधारी दल के बाद सर्वाधिक सीट पाने वाले सबसे बड़े विपक्षी दल को ही सदन में नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दी जाएगी. इस नियम के कारण ही लोकसभा में १९६९ में पहली बार नेता प्रतिपक्ष के पद पर कोई बैठने में सक्षम हो सका था. उसके बाद १९७७ में इस नियम में कुछ संशोधन कर इस पद के लिए कुछ सुविधाओं आदि की बात भी कही गयी जिससे पूरे मामले में नया मोड़ आ गया और उसके बाद से धीरे धीरे पिछले दो दशक में देश की आवश्यकताओं के अनुरूप इस नियम में संशोधन कर नेता प्रतिपक्ष को भी यह मानते हुए कि उसे देश में सरकार चला रही पार्टी के बाद सबसे अधिक मत मिले हैं उसे भी विभिन्न निर्णयों में शामिल करने कि शुरुवात की गयी.
                                                              देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए जिस तरह से लोकसभाध्यक्ष के पास केवल सीटों के माध्यम से विपक्ष के नेता का चुनाव करने की छूट मिली हुई है उससे भी यह नियम वर्तमान समय में और भी पेचीदा हो गया है. अभी तक जिस तरह से मतों के प्रतिशत के स्थान पर केवल सीटों को ही प्राथमिकता दे गयी थी तो उस समय आज की स्थिति की कल्पना भी नहीं कि गयी थी. पहले नेता प्रतिपक्ष केवल कहने के लिए ही हुआ करते थे पर जब से देश में महत्वपूर्ण नियुक्तियों में उसकी भूमिका को बहुत बढ़ा दिया गया है तो इस बार उस स्थिति से कैसे निपटा जायेगा यह तो समय ही बताएगा पर सरकार की तरफ से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जब जनता ही नहीं चाहती तो किसी को वह पद क्यों दे ? राजनैतिक और कानूनी स्तर पर यह बात बिलकुल सही बैठती है पर जब संसदीय परम्पराओं की बात की जाये तो विपक्ष को उचित स्थान न दिया जाना किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है.
                                                              इस मुद्दे पर आज के नियमों के अंतर्गत कोई भी निर्णय लेना लोकसभाध्यक्ष का काम होता है और नियम सारा कुछ उनके विवेक पर ही छोड़े जाने की बात करते हैं. यदि उन्हें लगता है कि इस पद पर किसी को होना चाहिए तो वे इसके लिए स्वतंत्र हैं पर क्या कोई पीएम की बात से आगे जाकर निर्णय ले सकता है यह सोचने की बात है. अब इस मसले को यहीं पर बंद मान लिया जाना चाहिए क्योंकि जब तक सरकार इस नियम में कोई संशोधन नहीं करती है तब तक इस पर केवल बातें ही की जा सकती हैं. अब यह कानूनी रूप से देखे का विषय होगा कि सरकार के इस कदम के खिलाफ कोई कानूनी प्रक्रिया कोर्ट में टिक भी सकती है या फिर सरकार अपने मन से अब बिना प्रतिपक्ष के नेता के ही सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियां करने की तरफ बढ़ जाती है ? कांग्रेस को भी चाहिए कि इस मुद्दे पर अब वह कुछ भी न करते हुए सरकार के कार्यों का गुणदोष के अनुसार विवेचन करती हुई विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करने की तरफ सोचना शुरू करे.        
    
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