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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

मुर्गे और एंटीबायोटिक्स और मनुष्य

                                                                              सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीइसई) की एक बेहद चौंकाने वाली रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि देश के पोल्ट्री फॉर्म उद्योग से जुड़े हुए लोग मुर्गो का वज़न बढ़ाने के लिए उनमें मनुष्यों को खिलाई जाने वाली विभिन्न एंटीबॉयटिक दवाओं का धड़ल्ले से इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं और किसी भी तरह के बहुत प्रभावी कानून के अस्तित्व में न होने के कारण मनुष्यों में इन एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जा रही है. दिल्ली और एनसीआर के इलाकों से मुर्गों से लिए गए नमूनों में ४०% तक में इस तरह के एंटीबायोटिक्स पाये गए जिनका इस्तेमाल मनुष्यों में किया जाता है और इस तरह से मनुष्यों के शरीर में पहुंचे हुए इसके अंश आवश्यकता पड़ने पर दवाओं को बेअसर कर देते हैं. इस पूरे दुरूपयोग का यह दुष्प्रभाव होता है कि कई बार रोगियों की जान पर भी बन आती है और चिकित्सा में सफलता की संभावनाएं भी क्षीण हो जाती हैं.
                                                              देश में दवाओं के मनमाने ढंग से किये जाने वाले दुरूपयोग को रोकने के लिए कोई प्रभावी कानून अस्तित्व में संभवतः है ही नहीं और जो लोग इसके नियंत्रण के लिए ज़िम्मेदार हैं वे इस मामले को इतना गंभीर मानते ही नहीं है. वैसे देखा जाये तो केवल पोल्ट्री फॉर्म के लोगों द्वारा ही इस तरह से किया जा रहा हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि दवाओं के अनावश्यक प्रयोग से भी मनुष्यों में नई नई आने वाली एंटीबायोटिक्स बहुत जल्दी ही काम करना बंद कर देती हैं. इस काम में चिकित्सा जगत से जुड़े हुए लोग भी अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक ढंग से नहीं निभा रहे हैं तो पूरे परिदृश्य की भयावहता को आसानी से समझा जा सकता है. नमूनों में मनुष्यों में आमतौर पर उपयोग में लायी जाने वाली दवा सिप्रोफ्लॉक्सासिन का इस्तेमाल मुर्गों के वज़न को बढ़ाने में किया जा रहा है और निरंतर इस दवा के माध्यम से बढ़ाये गए वज़न वाले मुर्गे को खाने से यह दवा आवश्यकता पड़ने पर मनुष्यों में काम नहीं करने वाली है.
                                                              इस घटना से मांसाहारी लोगों की स्वस्थ्य सम्बन्धी चिंताएं और भी अधिक बढ़ने वाली है क्योंकि इस श्रेणी के अधिकांश भारतीयों को परोसे जाने वाले इस तरह के किसी भी मांस को प्रभावी ढंग से चेक नहीं किया जाता है जबकि कानून खाने में इस्तेमाल किये जाने वाले प्रत्येक मुर्गे या अन्य स्रोत के स्वस्थ्य परीक्षण की बात भी करता है. आज के समय में इस तरह से कुछ भी मनमानी कर केवल पैसा बटोरने की प्रवृत्ति आने वाले समय में इन क्षेत्रों में रहने वालों के लिए बड़ी स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताएं उत्पन्न कर सकती है. इस बारे में सरकार का रवैया तो आसानी से बदलने वाला नहीं है तो मांसाहारी लोगों के पास क्या विकल्प शेष रह जाते हैं ? अच्छा हो कि वे अपने खानपान को हर जगह खुला रखने के स्थान पर कुछ जगहों तक ही सीमित रखें क्योंकि आज भी बहुत सारे लोग इस तरह के स्वास्थ्य सम्बन्धी खिलवाड़ को पसंद नहीं करते पर इस तरह के लोगों के बारे में सही खोज कर पाना भी एक बड़ी समस्या है.
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