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बुधवार, 19 नवंबर 2014

छोटे राज्य और विकास

                                                                         बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड बनने के बाद यहाँ के निवासियों की वे आशाएं पूरी तरह से टूट चुकी हैं जिन्हें उन्होंने अलग राज्य के संघर्ष करते समय अपने सपने के रूप में पाला था और आज वहां पहाड़ों की स्थिति कुछ इस तरह की हो चुकी है कि पलायन के चलते लगभग ३००० गाँव पूरी तरह से खाली हो चुके हैं. २००० में राज्य बनने के बाद जिस तरह से तीन राज्यों में केवल छत्तीसगढ़ को ही कुछ हद तक पटरी पर कहा जा सकता है वहीं उसकी वर्तमान में सामने आ रही कमज़ोरी ने यही साबित कर दिया है कि राज्यों के आकर से प्रशासन पर कोई अंतर नहीं आता है क्योंकि आज भी उत्तराखंड और झारखण्ड अपने वजूद के लिए खुद से लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं. इस पूरी विफलता के लिए राज्य के सभी लोग ज़िम्मेदार कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके समवेत प्रयासों से ही राज्य का समग्र विकास होना था पर उस पर कोई ठोस प्रगति होती नहीं दिखाई देती है.
                                          नए पहाड़ी राज्य का जिस तरह से केवल पर्वतीय आधार पर किया गया था पर उसमें मुलायम सिंह के विरोध के बाद भी हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर को भाजपा ने उत्तराखंड में शामिल करवाया था आज राज्य उसी गलती का खामियाज़ा पहाड़ों से पलायन के रूप में भुगत रहा है. राज्य के वर्तमान सीएम हरीश रावत ने जहाँ पहली बार गैरसैण को राज्य की राजधानी बनाये जाने के लिए सही और ठोस कदम उठाने की कोशिशें शुरू की हैं वे कब तक वहां के आर्थिक हितों पर परिणाम दे पाएंगीं यह तो समय ही बताएगा पर आज आम पहाड़ी अपने को इस कदर ठगा महसूस कर रहा है कि उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा है. अलग राज्य का सबसे अधिक विकास केवल मैदानी जिलों में ही हुआ तो क्या इससे एक बार फिर से यूपी के साथ के समय और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी सामने नहीं आती है ? तब पहाड़ियों की धमक यूपी के सत्ता के गलियारों तक हुआ करती थी पर आज हालत यह है कि राज्य से केंद्र में एक मंत्री तक नहीं है ?
                                           राज्य के विकास के लिए जिस तरह से योजनाएं बनायीं जानी चाहिए थीं उस ऊर्जा को अधिकांश सीएम अपनी कुर्सी बचाने में ही लगाते रहे जिससे नए राज्य के उन गंभीर मुद्दों पर देहरादून में भी चर्चा नहीं हो सकी जो लखनऊ में नहीं हो पाती थी. कमज़ोर प्रशासनिक क्षमता और नेताओं की छोटी सोच ने आज राज्य को वास्तव में विकास के मोर्चे पर अभिशाप ही दिया है जिसका कोई औचित्य नहीं था. हरीश रावत ज़मीनी नेता हैं और उन्होंने पहली बार यह स्वीकार कर लिया है कि अलग राज्य के गठन के उद्देश्य को उत्तराखंड नहीं प्राप्त कर पाया है. दलीय राजनीति से हटकर यदि देखा जाये तो रावत पहले ऐसे सीएम हैं जिनकी राजनीति ठोस है और जनता पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ भी है. आज वे जिस मनोयोग से राज्य को पटरी पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं यदि उसमें उन्हें कांग्रेस आलाकमान से पूरी खुली छूट मिल जाये तो वे राज्य में व्याप्त बहुत सारी कमियों दूर करने की क्षमता रखते हैं पर स्थानीय राजनीति उन्हें कब तक पद पर रहने देगी राज्य के लिए यही सबसे बड़ा प्रश्न है.          
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