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सोमवार, 9 मार्च 2015

किशोर और महिला अपराध

                                                    केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा किशोर न्याय अधिनियम में जिस संशोधन का फैसला किया है आज के परिप्रेक्ष्य में उसकी बहुत आवश्यकता भी है पर बड़े परिवर्तन एकदम से नहीं किये जा सकते हैं इसलिए किशोरों के जघन्य अपराधों में शामिल होने की दशा में उनके विरुद्ध भी वैसा ही मुक़दमा चलाया जा सकेगा जैसा वयस्कों के प्रति चलाया जाता है. निर्भया कांड के बाद जिस तरह से महिलाओं के खिलाफ होने वाले किसी भी अपराध में शामिल होने वाले किसी भी व्यक्ति को कठोर सजा दिए जाने के लिए देश में जिस तरह से माहौल बना था उसको देखते हुए ही पहले संप्रग सरकार ने कानून को बेहद कडा करने की दिशा में पहला कदम उठाया था पर जिस तरह से किशोर अपराधियों के खिलाफ कानून को और भी सख्त बनाये जाने पर विभिन्न स्तरों पर गंभीर मतभेद दिखाई दिए थे तो उनके चलते ही किशोरों के लिए सख्त सजा की बात उस समय नहीं पूरी हो सकी थी. आज जिस तरह से सरकार ने एक बार फिर से इस मामले पर नए सिरे से निर्णय लेने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं वह अपने आप में सही कदम ही है क्योंकि कम उम्र के लड़कों के एक बार गंभीर अपराध में शामिल होने के बाद सुधार की गुंजाईश कम ही हो जाती है.
                                          आज जिस तरह से समाज में व्याप्त संसाधनों के माध्यम से किशोरों की मानसिक स्थिति समय से पूर्व ही वयस्कों जैसी होने लगी है तो उस स्थिति में अब उनके साथ अलग व्यवहार किये जाने की आवश्यक ही क्या है ? आज जिस तरह से आसानी से मोबाइल पर उपलब्ध नेट के दुरूपयोग की बातें सामने आ रही हैं और कई मामलों में सोशल मीडिया के माध्यम से ही समस्या हद को पार करती हुई दिखाई दे रही है तो सरकार के इस कदम से काफी हद तक समाज पर दबाव बन सकता है जिसमें किशोरों पर परिवार की निगरानी बढ़ने की पूरी संभावनाएं भी सामने दिखाई दे सकती हैं. अपराध करने वाले को अपराधी से अलग कैसे किया जा सकता है यह भी बहस का मुद्दा है पर सरकार ने इस पूरे प्रकरण को जिस तरह से आगे बढ़ाने का निर्णय किया है वह बिलकुल सही है. सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि किसी भी तरह के जघन्य अपराध में शामिल होने वाले किशोर की मनोदशा कैसी थी और इस पर किशोर न्याय बोर्ड के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी अपनी राय देंगें जिसके बाद ही किशोर पर सामान्य अपराधियों की तरह मुक़दमा चलाने और सजा देने की व्यवस्था की जाएगी.
                                       महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध में शामिल किसी भी व्यक्ति की मानसिक दशा का आंकलन किया जाना क्या इतना आसान होने वाला है और वह भी जब मामला कई तरह के विशेषज्ञों और कानूनी जटिलताओं के बीच से होकर गुजरने वाला हो ? फिर भी सरकार को प्रायोगिक तौर पर इस तरह के संशोधन को करना ही चाहिए क्योंकि आज जिस तरह से समाज अपने बच्चों के प्रति लापरवाह होता चला जा रहा है तो उसे अपने बच्चों के प्रति ज़िम्मेदारी का एहसास भी कराये जाने की आवश्यकता है. समाज के निचले स्तर तक यह बदलाव पहुंचे इसके लिए अब पंचायतों और नगर निकायों के बोर्डों को भी इसमें शामिल किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि ये समाज के सबसे निचले स्तर पर सीधे आम लोगों के संपर्क में रहने वाला राजनैतिक स्वरुप है. कानून में संशोधन करने हर गांव और मोहल्ले में लैंगिक भेदभाव को रोकने के साथ ही आदर्शों की बातों को बच्चों तक पहुँचाया जाना चाहिए. नैतिक शिक्षा को स्कूलों और किताबों से बाहर निकाल कर समाज के बच्चों तक प्रायोगिक तौर पर पहुँचाने की तरफ भी सोचा जाना चाहिए स्कूल अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं या नहीं इसके लिए हर स्कूल में अभिभावकों का संघ बनाये जाने की कानूनी कोशिशें भी की जानी चाहिए जिससे कानून के साथ समाज का इस पूरी प्रक्रिया में सही तरह से जुड़ाव हो सके और हमारे भविष्य के समाज के कर्णधार बच्चों में सामाजिक मूल्यों का सही समावेश किया जा सके. 
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