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बुधवार, 15 जुलाई 2015

आईआईटी और गुणवत्ता

                                                               कुछ दिन पहले आईआईटी रुड़की द्वारा अंडर परफॉर्म करने वाले अपने ७३ छात्रों को संस्थान से निकालने की ख़बरों के बीच ही कुछ ऐसी ख़बरें सामने आ रही हैं जिनके माध्यम से इन संस्थानों से निकलने वाले छात्रों की गुणवत्तापरक क्षमता के विकसित होने पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगने वाला है और इस सबके बीच में सबसे बुरी खबर यही हो सकती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ये संस्थान केवल सामान्य शिक्षा के केंद्र बनकर ही न रह जाएँ. पिछले वर्ष जहाँ कमज़ोर तबकों के लोगों के लिए प्रवेश के लिए ८.८% की पात्रता रखी गयी थी यदि इस वर्ष भी उसे बनाये रखा जाता है तो इस समूह की ५०७ सीटों को पूरी तरह से भर पाना असंभव हो जायेगा जिससे निपटने के लिए अब इस सीमा को और घटकर ६.१% किया जा रहा है जिससे सीटें खाली न रह सकें. बेशक समाज के कमज़ोर तबकों को आज़ादी के बाद देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए इस तरह के आरक्षण की आवश्यकता थी और उसे देखते हुए इस आरक्षण को १० वर्षों के लिए एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर अपनाया गया था पर आज भी निचले स्तर की शिक्षा व्यवस्था में सुधार न होने के कारण आम गरीबों और वंचितों तक ये सुविधाएँ उस स्तर तक नहीं पहुँच पायी हैं जहाँ उन्हें होना चाहिए था.
                                       क्या हमारे नेताओं की आज की पीढ़ी ईमानदारी के साथ यह कह सकती है कि उसने संविधान की मुल भावना के साथ इस मामले में न्याय करते हुए समाज के वंचितों तक सही दिशा में पहुँचने की कोशिश की है ? वह आरक्षण जो समाज के गहरे विभाजन को दूर करने के सपने के साथ अस्थायी रूप से शुरू किया गया था आज राजनीति का बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है जिसमें एक बार आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ चुके लोगों को ही इसका अधिक लाभ लगातार मिल रहा है और यह नेताओं को भी भाता है इसलिए कोई भी दल देश की सही प्रतिभाओं को सामने लाने तथा नयी पीढ़ी में नयी प्रतिभा को तैयार करने के स्थान पर केवल आरक्षण का झुनझुना पकड़ा कर अपनी राजनीति करने में ही व्यस्त रहा करते हैं. आरक्षण दिया जाना चाहिए इसका सामाजिक स्तर पर भी केवल राजनैतिक कारणों से ही विरोध किया जाता है पर जब तक ज़मीनी हालत की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने का काम सही तरह से नहीं किया जायेगा तब तक क्या समाज का वास्तविक भला हो सकता है ? इस बात का जवाब आज कोई भी नहीं देना चाहता है क्योंकि इसके सामने आते ही मामला आरक्षण समर्थन और विरोध में हो जाता है.
                            देश में तेज़ी बढ़ते हुए कोचिंग कल्चर ने भी इन संस्थानों की गुणवत्ता पर बुरा असर डाला है  क्योंकि एक समय था जब बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद बच्चे इन प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लिया करते थे पर कुछ लोगों ने आईआईटी के परीक्षा पैटर्न को ध्यान में रखते हुए अपने यहाँ उसी तरह से केवल प्रवेश को अपना लक्ष्य बनाकर पढ़ाना शुरू कर दिया जिसके बाद से ही इन संस्थानों में केवल एक विशेष पद्धति से शिक्षा पाये हुए छात्र ही पहुँचने लगे जिनमें कड़ा परिश्रम करने की क्षमता तो थी पर वे किसी बड़े शोध आदि पर काम करने के लायक बिल्कुल भी नहीं थे जिससे पूरा मामला बिगड़ता ही जा रहा है. आज आईआईटी के पास उस स्तर के छात्र पहुँच ही नहीं पाते हैं जिसकी उसे आवश्यकता है और केवल सतही जानकारी के बल पर छात्र आगे बढ़कर नौकरियां तो पा जाते हैं पर उनका देश और समाज के साथ विज्ञान की प्रगति में कोई योगदान नहीं दिखाई देता है तो इस स्थिति में इतने बड़े संस्थानों को चलाये जाने की आवश्यकता भी क्या है जिससे केवल पैसा कमाने वाले रोबोट ही पैदा किये जा रहे हों ?
                    आईआईटी के शिक्षक भी आज इस बात को मानते हैं कि आने वाले छात्रों में आज वो गुणवत्ता कहीं भी नहीं दिखाई देती है जो उनमें होनी चाहिए तो आखिर सरकार की तरफ से इतना धन इस क्षेत्र में खर्च करने की क्या आवश्यकता है ? सतही शिक्षा पाकर कुछ करने के मंसूबों के साथ नौकरियां तो मिल सकती हैं पर उससे देश का क्या भला होगा यह जानने की आज कोई कोशिश नहीं कर रहा है. क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को इस बारे में अब सही दिशा में सोचने की आवश्यकता नहीं है जिससे हमारे संस्थान विश्व स्तरीय बन सकें और यहाँ से निकले हुए छात्र पूरे विश्व में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ सकें ? क्या समाज की यह ज़िम्मेदारी भी नहीं बनती है कि अब बच्चों को आईआईटी का रोबोट बनाने के स्थान पर कुछ वास्तविक शोध और सकारात्मक परिणामों के लिए तैयार करने के बारे में सोचना शुरू कर सके ? आखिर हम हर काम सरकार पर ही लाद कर खुद को ज़िम्मेदारियों से क्यों अलग कर लिया करते हैं जबकि हमें भी पता है कि हमारी आवश्यकताओं को सरकारें कभी भी नहीं समझना चाहती हैं.
                         सुधार की बात वहीं से शुरू करनी होगी जहाँ से इसे बिगाड़ा गया है क्या आज देश को ऐसे विद्यालयों की आवश्यकता नहीं है जहां पर समाज के वंचितों को मिड डे मील, ड्रेस और वजीफे की अप-संस्कृति से बाहर निकालने के काम पर सोचना शुरू किया जाये ? क्या आँखें बंद करके आरक्षण की पैरवी करने वाली सभी सरकारों ने कभी इन छात्रों के भविष्य के बारे में सोचने की कोशिश की है जो ६.१% नम्बर पाकर इस वर्ष आईआईटी में प्रवेश पाने वाले हैं ? क्या उनकी माध्यमिक शिक्षा उस स्तर की है जो उन्हें आईआईटी के  दबाव को झेलने और वहां पर कुछ करने लायक बना सकती हो तो फिर जहाँ कमी है उसे दूर करने के स्थान पर इन छात्रों को संस्थानों में उपहास का पात्र बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? अब आरक्षण की मांग और विरोध करने वाले दोनों ही समूहों को सरकार और सुप्रीम कोर्ट से यह मांग खुद ही करनी चाहिए कि आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता और सबको समान अवसर देने के कुछ अन्य तरह के उपाय भी सोचे जाने चाहिए. आज यदि सरकारें इन महत्वपूर्ण संस्थानों के लिए माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर पूरा ध्यान देने के बारे में सोचना शुरू करे और एक २० वर्षीय योजना भी बनाये जिसमें समाज के वंचितों को निचले स्तर से ही इस शिक्षा के लिए तैयार किया जाये और चरणबद्ध तरीके से समाज में असमानता के इस स्तर को दूर करने के बारे में सोचा जाये तो सभी के लिए समान अवसर और भेदभाव को दूर करने में सफलता मिल सकती है.     
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

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