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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

"जन-गण-मन" और संघ का मन

                                        देश में रोज़ ही नए विवाद खड़े करने में संघ पोषित भाजपा के नेताओं की सोच का कोई मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है और इस बार इस काम को करने का बीड़ा राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह द्वारा उठाया गया है जिसमें उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय की २६ वें दीक्षांत समारोह में अधिनायक शब्द पर आपत्ति उठाकर एक बार फिर से उठकर विवादों का पिटारा खोल दिया है. असलियत में भारत के स्वाधीनता संग्राम में हिन्दू महासभा या बाद में बने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके नेताओं की कभी भी कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका आज तक साबित नहीं हुई है इसलिए उनको देश की आज़ादी के हर उस स्तम्भ से कष्ट होता ही रहता है जिसको लेकर तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और आज़ाद हिन्द फ़ौज़ तक ने बहुत सारे कष्ट झेले थे. लगता है कि कल्याण सिंह ने रविन्द्र नाथ टैगोर के उस बयान को ध्यान से पढ़ा ही नहीं है जिसमें उन्होंने जॉर्ज पंचम की कथित प्रशंसा करने के आरोप पर खुद ही यह कहा था कि ''मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज्जती समझूँगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.'' इस स्पष्टीकरण के पत्र के बाद भी जिस तरह से समय समय पर संघी मानसिकता के लोग इस मुद्दे को हवा देते रहते हैं आज उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि आज़ादी के बाद इसे गंभीर चिंतन के बाद ही राष्ट्र गान के रूप में स्वीकार किया गया था.
                           संभवतः संघ को इस बात से अधिक दिक्कत है कि आज़ादी के बाद देश के लिए सब कुछ चुनने का अधिकार आखिर कांग्रेस के लोगों को कैसे मिल गया था और आज तक उसे यह सब एक बुरा सपना जैसा ही लगता है जिसको लेकर उसके नेता आज भी वह घटिया स्तर पर बात करने से नहीं चूकते हैं. २७ दिसंबर १९११ जो टैगोर का यह गीत पहली बार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था जिसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं और इतिहास में जाने पर यह भी पता चलता है कि उसी अधिवेशन में "जन गण मन" के तुरंत बाद ही रामभुज चौधरी द्वारा रचित एक गीत "बादशाह हमारा" भी बच्चों द्वारा गया गया था जिसमें जॉर्ज पंचम की प्रशंसा की गयी थी. यह प्रशंसा का गीत उस अधिवेशन में जॉर्ज पंचम द्वारा बंगाल विभाजन को निरस्त करने आदेश के धन्यवाद के रूप में गया गया था. "जन गण मन" के पहली बार गए जाने के बारे में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है और यह कलकत्ता और बॉम्बे के तत्कालीन समाचार पत्रों में भी छपा था कि कांग्रेसी जलसे की शुरुवात रविन्द्र नाथ टैगोर के एक गीत से की गयी थी. स्वयं गुरुदेव ने भी १९१२ में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि इसमें किसी भी व्यक्ति की प्रशंसा नहीं की गयी है.
                        इतने स्पष्ट प्रमाण होने के बाद भी अगर कल्याण सिंह इस तरह की अनर्गल बातें करने से बाज़ नहीं आते हैं इसका यही मतलब है कि संघ और भाजपा उनके माध्यम से देश का मन टटोलने का काम करने की दिशा में जा रहे हैं क्योंकि यदि इस बात पर व्यापक विरोध हुआ तो इसे कल्याण सिंह का निजी विचार कहकर खारिज भी किया जा सकता है और अपने को बचाया जा सकता है पर यदि बंगाल से इसका गंभीर विरोध नहीं हुआ जिसकी सम्भावना बहुत कम है तो केंद्र सरकार इस मसले पर आगे जाने की भी सोच सकती है. बंगाल के आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए भाजपा बंगाली जन मानस को उद्देलित करने का कोई भी काम नहीं करना चाहेगी क्योंकि पूरे देश में टैगोर का जो सम्मान है उससे कही अधिक बंगाल में उन्हें माना जाता है. इस मामले पर ममता बनर्जी भी चुप नहीं रहने वाली हैं और समय आने पर वे भी भाजपा पर इस मुद्दे को लेकर बड़ा हमला कर सकती हैं क्योंकि बंगाली अस्मिता को बचाये रखने के नाम पर वे गुरुदेव के नाम का उपयोग कर इस मुद्दे पर काफी कुछ राजनैतिक लाभ भी उठा सकती हैं. इन सबके बीच में एक महत्वपूर्ण बात यह भी सामने आती है कि क्या संवैधानिक पदों पर जिस संविधान की शपथ लेकर कल्याण सिंह जैसे जिन लोगों को बैठाया गया है क्या वे संविधान में स्वीकृत बातों का इस तरह से विरोध करने का कोई अधिकार रखते भी हैं या नहीं इसका उत्तर तो संविधान विशेषज्ञों से ही अपेक्षित है.   
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