मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 26 अगस्त 2015

आरक्षण का जिन्न गुजरात में

                                                               देश और दुनिया के सामने वाइब्रेंट गुजरात की तस्वीर के बहाने दिल्ली की सत्ता तक पहुँचने वाले नरेंद्र मोदी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन विकसित राज्य में अच्छा ख़ास दखल रखने वाले पटेल समुदाय की तरफ से वहां की राजनीति में आरक्षण को लेकर इस तरह का बवाल खड़ा किया जायेगा जिससे पूरी दुनिया में गुजरात के संपन्न होने और देश के पीएम के रूप में खुद मोदी की छवि पर इस तरह से आंच आ जाएगी. यह सही है कि आरक्षण अपने आप में दोधारी तलवार है और इसके साथ या विरोध में खड़े होने के चलते कई राजनेताओं को बहुत बड़े पैमाने पर लाभ या हानि का सामने करते हुए भी देखा गया है. आज़ादी के समय जब देश के वंचितों को आरक्षण की बात यही गयी थी तो वह एक अस्थायी प्रावधान था पर ज़मीनी स्तर पर उसका जिस तरह से नेताओं द्वारा दुरूपयोग करना शुरू किया गया उसके बाद कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा है और मंडल आंदोलन के समय देश में जिस तरह से बंटवारा हुआ था क्या उससे देश के नेताओं ने कोई सबक भी सीखा है या आज भी उसी तरह की गलतियों को दोबारा करने के लिए तैयार बैठे हैं ?
                                                अब समय आ गया है कि देश में आरक्षण हो या न हो इस बात पर भी गंभीर चर्चा की जाये क्योंकि आरक्षण का जिस तरह से विभिन्न राज्यों में दुरूपयोग किये जाने के चलते सुप्रीम कोर्ट तक को हर बार इसमें दखल देना पड़ता है वह देश के लिए किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है. मसला चाहे मुस्लिम आरक्षण का हो या जाटों के हर बार सुप्रीम कोर्ट तक मामले सुनवाई के लिए पहुँचते हैं और कोर्ट का समय भी ख़राब होता है तो क्या इस तरह के मामलों से निपटने के लिए अब सरकार को नीतिगत स्तर पर पहल करने की आवश्यकता नहीं है ? किसी भी मामले में कोर्ट का दखल अंतिम विकल्प के रूप में किया जाना चाहिए पर आज की परिस्थिति में विधायिका के अजीबोगरीब क़दमों से किसी भी व्यक्ति को लगातार कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की आवश्यकता महसूस होती रहती है. आरक्षण देश के वंचितों की आवश्यकता है पर इसे किसी भी अन्य समूह द्वारा राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उसका स्वरुप अंत में अराजक ही हो जाता है जिसे सँभालने के चक्कर में समाज में दूरियां और भी बढ़ जाती हैं.
                                 अच्छा हो कि आरक्षण के मुद्दे पर देश की संसद में गंभीर बहस हो और यह तय किया जाये कि क्या इतने वर्षों तक आरक्षण के माध्यम से यह सुविधा उन लोगों तक पहुंची जिनके लिए ये प्रावधान किये गए थे क्योंकि आज भी जिनको आरक्षण का लाभ एक बार मिल चुका है हर बार वही फिर से इसका लाभ उठाने में लगे हुए हैं. क्या देश को अब इस मुद्दे पर नए सिरे से सोचने की आवश्यकता नहीं है जिसमें इन सामाजिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के बारे में नए सिरे से योजनाएं बनाये जाने का काम शुरू किया जाये जिसमें इस बात पर भी विचार किया जाये कि अभी तक जिस स्वरूप में समाज को आरक्षण दिया जा रहा है उसके कितने लाभ उस वर्ग को मिले हैं और क्या पूरे समाज कि दशा में कोई गुणात्मक सुधर भी हुआ है ? सरकारी नौकरियों में केवल कुछ प्रतिशत मिल जाने भर से क्या पूरे समाज का सुधार हो सकता है और क्या सरकार को इन लोगों को हर तरह से प्रशिक्षित करते हुए आगे आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करने के बारे में भी अब नहीं सोचना चाहिए ? अब समय आ गया है कि देश की संसद में इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन हो और पूरे देश की राय इस बारे में जानने की कोशिश भी की जाये जिससे आरक्षण को सही लोगों तक बिना किसी राजनीति के पहुँचाया जा सके और देश की प्रगति में सभी को शामिल भी क्या जा सके. 
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