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मंगलवार, 25 अगस्त 2015

सूचना अधिकार और राजनैतिक दल

                                                                              जैसे कि लम्बे समय से मांग की जा रही है कि देश के सभी राजनैतिक दलों को पूरी तरह से सूचना के अधिकार के तहत लाया जाये और उनसे जुडी किसी भी बात को सार्वजनिक किये जाने के मार्ग में कानूनी रूप से कोई बाधा भी आनी चाहिए पर देश के राजनैतिक दल इस बात के लिए राज़ी नहीं दिखाई देते हैं. राजनेताओं और राजनैतिक दलों के बारे में आज भी देश की जनता को गोपनीयता के कारण बहुत सारी जानकारियां नहीं मिल पाती हैं. ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि जब देश में लगभग सारा कुछ सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने लगा है तो देश के राजनैतिक दलों को इस बात में क्या आपत्ति है और आज उन्हें किस बात का डर सता रहा है जिसके बारे में वे सुप्रीम कोर्ट में भी खुलकर बात नहीं कर पाते हैं और अजीब तरीके से इस मांग का विरोध करते हुए नज़र आते हैं. क्या देश में नेताओं को इतनी छूट दी जा सकती हैं कि वे हर स्तर पर मनमानी करते रहें और कोई भी उनसे उनकी हरकतों से जुड़े सवाल कसी भी स्तर पर नहीं पूछ सके ? देश को अब इस बारे में सोचना ही होगा और आने वाले समय में राजनेताओं और दलों की कितनी जानकारी सार्वजनिक की जा सकती है इस बारे में भी काम करना होगा तभी कुछ परिवर्तन सामने दिखाई दे सकता है.
                                                              पहले संप्रग सरकार के समय भाजपा कुछ हद तक जानकारी को सार्वजनिक किये जाने की पक्षधर दिखाई देती थी पर अब सरकार में आने के बाद उसका रवैया भी उसी तरह का हो गया है और उसने यह स्वीकार किया है कि सूचना के अधिकार के लागू होने से राजनैतिक दलों के लिए काम करना कठिन हो जायेगा क्योंकि विरोधी दल इस बहाने से सत्ताधारी दल को परेशान करते रहेंगें. क्या देश के राजनैतिक दलों का मानसिक स्तर इतना निम्न है कि वे किसी सुविधा कर इस तरह से दुरूपयोग कर सकते हैं यह सोचने का विषय है क्योंकि भाजपा उन दलों में शामिल है जिन्होंने केवल मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर संसद में लम्बे समय तक काम ठप रखने में महारत हासिल कर रखी थी और आज वही काम कांग्रेस करती हुई दिखाई दे रही है. क्या सुप्रीम कोर्ट सरकार की तरफ से पेश की गयी इस बेमतलब की दलील को मानेगा और राजनैतिक दलों को इस बारे में कोई राहत देने का काम भी करेगा या फिर उनकी इस तरह की बातों की अनदेखी करते हुए कठोर निर्णय सुनाने की तरफ बढ़ेगा यह तो समय ही बताएगा पर आज भी देश के राजनैतिक दलों के एक दूसरे के प्रति मानसिक स्तर को देखकर यही लगता है कि संभवतः अभी इन्हें गंभीर होने में कई शताब्दियाँ भी लग जाएँगी ?
                                                  देश के लिए बनायीं जाने वाली अच्छी नीतियों को कोई भी दल अनदेखा नहीं कर सकता है क्योंकि उनके माध्यम से ही देश को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया जा सकता है पर आज भी विकास के मुद्दे पर भी सभी दल जमकर राजनीति करते हैं तथा देश के लिए हितकारी फैसले लेने में दशकों बीत जाते हैं और मज़बूत सरकारों की तरफ से कठोर कदम उठाये जाने के स्थान पर कभी नरसिंह राव जैसे कमज़ोर बहुमत वाले पीएम देश की किस्मत पलटने का हौसला दिखा जाते हैं. क्या आज़ादी के इतने समय बाद देश को गंभीर सांसदों की आवश्यकता नहीं है और क्या कुछ ऐसा भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे किसी बड़े बदलाव से पहले पूरी तरह से विशषज्ञों की समिति की राय करते हुए एक दीर्घकालिक नीति बनायीं जा सके जिसमें राजनेताओं का दखल न के बराबर ही हो और उन नीतियों की प्रति वर्ष समीक्षा भी की जाये जिससे देश को सही रास्ते पर आगे बढ़ने में कसी भी दल की सरकार को मदद मिल सके ? गंभीर मुद्दों से पूरी तरह से अनजान राजनेताओं को केवल संसदीय नियमों के कारण ऐसी समितियों में रख दिया जाता है जिनके बारे में उनको कोई ज्ञान नहीं होता है और वे वहां पर केवल कोरम ही पूरा करते रहते हैं तो क्या इसे भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए सही कहा जा सकता है ? अब समय आ गया है कि राजनैतिक दल भी अपने काम काज में खुद ही खुलापन लाएं और देशहित के मुद्दों को केवल संसद ही नहीं अन्य मंचों पर भी विमर्श के माध्यम से तय करने की कोशिशें करना शुरू करें.     
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