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रविवार, 13 सितंबर 2015

हिंदी दिवस या भारतीय भाषा दिवस

                                देश के संविधान में जिस तरह से मुख्य रूप से उत्तर भारत में बोली जाने भाषाओं में प्रमुख हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा होने का गौरव मिला उसके बाद देश के अन्य भारतीय भाषा भाषी राज्यों में यह विवाद का मुद्दा बना दिया गया और देश ने भाषा के नाम पर भी बड़े विभाजन का लम्बा दौर देखा है. आज भारतीय भाषाओं में प्रमुख भाषा के तौर पर स्थापित हो चुकी हिंदी ने भी अपने दम पर पूरे विश्व में अपनी धाक को बनाये रखा है जिसमें निश्चित तौर पर भारतीय सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि भारतीय सिनेमा को व्यापक रूप से पूरे दक्षिण एशिया समेत अधिसंख्य अरब देशों में प्रतिष्ठा भी इसके दम पर ही मिली है. आज़ादी के समय जिस तरह से हिंदी भाषी क्षेत्र में राजधानी दिल्ली के स्थापित होने और देश में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोले और समझे जाने के कारण ही हिंदी को आसानी से राष्ट्र भाषा का बना दिया गया था पर जिस देश में प्राचीन समय से ही "कोस कोस पर बदले बानी चार कोस पर पानी" की कहावत मशहूर हो वहां पर निश्चित तौर पर केवल हिंदी का मान बढ़ाने की सरकारी कोशिशें भी सही नहीं कही जा सकती है.
                            देश के समग्र विकास के लिए देश की सभी भाषाओं का समृद्ध होना बहुत आवश्यक है जिसके लिए केवल हिंदी के लिए माह, पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मनाकर देश को राष्ट्र भाषा का अपमान कारण ने से बचना चाहिए क्योंकि इससे हिंदी का भला कम नुकसान अधिक होता है. अच्छा हो कि जिन प्रदेशों की सीमाओं के साथ ही भाषाओं में बड़ा परिवर्तन होता है उन दोनों राज्यों के विशेषकर सीमान्त और पूरे राज्य में उन भाषाओं की वैकल्पिक शिक्षा के बारे में स्पष्ट नीति भी बनायीं जानी चाहिए जिससे किसी एक भाषा के लोगों को यह कहीं से भी न लगे कि उनकी मातृ भाषा का कहीं से भी अपमान हो रहा है क्योंकि आज इन मुद्दों को हवा देकर राजनेता अपने घटिया मंसूबों को पालने का काम किया करते हैं. अखिल भारतीय सेवाओं और विशेषकर सेना व अर्ध सैनिक बलों में पूरे भारत के सही दर्शन होते हैं जहाँ एक यूनिट में ही कई भाषाएँ बोलने वाले लोग शामिल होते हैं और सभी एक दुसरे को अच्छी तरह से समझ भी लेते हैं. क्या देश के आम नागरिक भी इस सोच को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं जिससे देश की हर भाषा को हिंदी के साथ और भी अधिक मान दिया जा सके..
                          सहिष्णुता सब कुछ कर सकने में सक्षम होती है और किसी भी परिस्थिति में एक भाषा को सरकारी स्तर पर पुष्ट करने और अन्य के लिए प्रयास न करने से कुछ भी सही नहीं किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर जब धर्म के नाम पर बने पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाबी और उर्दू भाषी प्रभावी लोगों ने जब पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लाभाषी लोगों पर अत्याचार करने शुरू किये तो उनको धर्म से अधिक अपनी भाषा ने जोड़ दिया था जो अब इतिहास का हिस्सा ही है. देश की सभी भाषाओं को एक सूत्र में पिरोने की अब बहुत आवश्यकता भी है क्योंकि जब से पूरे विश्व की दूरियां सिमटने लगी हैं तब से भाषा के झगडे भी कम हो चुके हैं. आज हैदराबाद या बंगलोर में हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों द्वारा किये जा रहे प्रयासों के दम पर नहीं बल्कि आवश्यकता के अनुसार खुद को बदलने के चलते ही भाषा कि वो दीवारें टूट रही हैं जो आज़ादी के बाद केवल राजनैतिक कारणों से ही खड़ी की गयी थीं. हर भारतीय को अपनी मातृ भाषा के साथ कम से कम एक भाषा अवश्य ही सीखनी चाहिए और यह कुछ हद तक अनिवार्य भी किया जाना चाहिए जिससे देश के नागरिक अधिकांश रूप में दोभाषी बने रहें और देश की भाषायी एकता को नेताओं के चंगुल से बाहर निकाल कर लोगों के ह्रदय तक पहुँचाने का काम कर सकें.   

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