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बुधवार, 16 सितंबर 2015

बहुलतावादी देश में धार्मिक मान्यताएं

                                                                विश्व के संभवतः सबसे शांत माने जाने वाले धर्मों में से एक जैन धर्म के बहुत ही महत्वपूर्ण पर्युषण पर्व पर मांस न बेचने से जुड़े सरकारी आदेशों के चलते पूरे देश में अजीब सा माहौल बनता जा रहा है. इस तरह के मामलों में सबसे चिंता की बात यह भी है कि पूरे मामले में राजनेताओं के अनावश्यक दखल के बाद जिस तरह से कुछ लोगों ने सीधे ही जैन समुदाय को निशाने पर लेना शुरू किया है वह बहुत ही निंदनीय है क्योंकि जैनियों का सदैव से ही देश के किसी भी हिस्से में अन्य धर्मों वर्गों या सम्प्रदायों से बहुत ही आत्मीयता का रिश्ता रहा है पर आज जिस तरह से इसका राजनैतिकरण किया जा रहा है वह आने वाले समय में देश के लिए बहुत ही ख़राब दौर भी साबित हो सकता है. देश का संविधान सभी को अपनी मान्यताओं के अनुसार चलने की स्वतंत्रता देता है पर इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि कोई अपनी धार्मिक मान्यताओं के आधार पर दूसरों के लिए समस्या खड़ी करने के लिए स्वतंत्र हो सकता है. मांस का काटना, बिकना और खाना पूरी तरह से विशुद्ध व्यक्तिगत मामला है और इसमें धर्म का कोई स्थान नहीं होना चाहिए पर दुर्भाग्य से हमारे वोटों के लालची राजनेता अपने हितों को साधने के लिए इस तरह के मामलों में भी अपना दखल किया करते हैं.
                                             मांस खाना किसी का भी व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है और इस बचाये रखने का अधिकार हर व्यक्ति को भारत के सम्पुर्ण संविधान ने दिया हुआ है पर क्या आज हम हर बात संविधान के आधार पर ही करते हैं या जिस स्थान पर हमें संविधान के प्रावधानों के पीछे छिपने का मौका मिल जाता है हम यहां उसके पीछे हो लेते हैं और बाकी जगहों पर अन्य तरीकों से अपनी सही गलत बातों को मनवाने का प्रयास नहीं करते रहते हैं ? सभ्य और आधुनिक समाज में एक दूसरे का ध्यान रखने की परम्पराएँ बिना किसी भेदभाव के ही अपनायी जाती हैं पर जहाँ किसी भी स्तर पर इसमें राजनीति का समावेश किया जाता है तो पूरा मामला एक अलग ही रुख अपना लेता है जिससे इसे सम्भालना भी मुश्किल हो जाता है. जैन समुदाय भी इसी तरह से यदि स्व नियंत्रण के माध्यम से साल के एक दिन अपने विश्वास के लिए समाज के अन्य धर्मों से यह अपेक्षा रखता है कि उस दिन किसी भी तरह की हिंसा से बचा जाये तो इससे किसी का भी नुकसान नहीं हो सकता है और साथ में रहने वाले सभी लोग भी उनकी इस अपेक्षा को आसानी से पूरा करने में सक्षम भी हैं पर जब इसे सरकारी डंडे के ज़ोर पर लागू करवाने के प्रयास किये जाते हैं तो मामले का रूप बिगड़ जाता है.
                                    पश्चिमी उप्र जिसे २०१३ से धार्मिक रूप से संवेदनशील माना जा रहा है वहां के बागपत जिले में बड़ौत के लोगों ने स्थानीय इमाम की अगुवाई में जैन समाज के साथ स्वतः ही बैठकर यह निर्णय कर लिया कि पर्युषण पर्व के दौरान बड़ौत में मांस पर खुद ही रोक लगा दी जाएगी तो यह क्या प्रदर्शित करता है ? वर्तमान परिस्थितियों में यह बहुत बड़ा मामला लग सकता है पर देश के आम शहर और गांवों में जाकर देखने पर इसकी सच्चाई से हम लोग रोज़ ही रूबरू होते रहते हैं पर संभवतः उसे स्वीकार करने में हमें कुछ हिचक ही अधिक रहती हैं. जो भी लोग मिश्रित आबादी में रहते हैं तो उन्हें मुस्लिम समाज के निकाह और दावतों में जाने का अवसर मिलता ही रहता है और जो लोग मांस नहीं खाते हैं उनके लिए ९० % से भी अधिक स्थानों पर शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था भी पूरे मनोयोग से की जाती है तथा इस व्यवस्था के बनाये जाने के पीछे केवल लोगों की सोच ही होती है जो समाज के दूसरे वर्ग के प्रति उनमें होती है. क्या समाज को इस तरह की व्यवस्था करने के लिए कोई कहता है अगर नहीं तो उनमें यह सोच कहाँ से आती है कि वे अपने आप ही एक अलग सामानांतर व्यवस्था को चलाने में भी संकोच नहीं करते हैं ?
                                  देश में किसी भी अवसर पर बहुत सारे ऐसे मामले भी सामने आते रहते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता है और जिनमें धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोग आसानी से अपने धार्मिक या राजनैतिक नेताओं के चंगुल में आ जाते हैं जो कि बड़े विद्वेष का कारण भी बन जाता है. पर्युषण पर्व पर सरकारी बैन लगाने के स्थान पर यदि सरकारें लोगों से स्वतः ही एक दिन के विरत रहने की अपील करती दिखाई दें तो पूरा मामला बहुत ही सामान्य हो सकता है पर राजनीति देश में जो कुछ न करवा दे वही कम है और ऐसे किसी भी मसले में राजनेता अधिकांश दो हिस्सों में बनते हुए दिखाई देते हैं क्योंकि मामले का स्तर इतना नीचे हो जाने के बाद कोई भी उसे आसानी से सँभालने में सक्षम नहीं दिखाई देता है. कुछ लोग जिनको समाज के इस तरह के धार्मिक, सामाजिक और वार्गिक बंटवारे से स्पष्ट लाभ होते हैं वे भी अपने स्तर से मामलों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं जिससे पूरा माहौल ही बदल जाया करता है. कुछ लोग इस मामले को भी मुस्लिम बनाम अन्य बनाने में लगे हुए हैं जबकि इस मामले में अधिकांश लोग चुप ही हैं फिर भी मुस्लिम समुदाय को निशाने पर लेकर हिन्दुओं को दूसरे पाले में इकठ्ठा करना राजनैतिक रूप से नेताओं के लिए आसान होता है.
                                   अच्छा हो कि इस तरह एक मामलों को समाज अपने स्तर से सद्भावना के तौर पर सुलझाने की कोशिश करे मांस व्यापार से जुड़े हुए लोगों के लिए एक दिन अपना व्यापार बंद रखना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है पर जब इस पूरे परिदृश्य में राजनैतिक बुद्धिजीवी शामिल हो जाते हैं तो समय समय पर विभिन्न समाजों को निशाने पर लेने की कोशिशें भी होती रहती हैं. अब जनता को ही यह समझना होगा कि नेताओं को तो मौके के हिसाब से कड़ी सुरक्षा मिल सकती है पर आम लोगों को अपने मोहल्लों, कस्बों, शहरों के माहौल को ठीक रखना ही होगा क्योंकि किसी भी तरह के अनावश्यक बवाल का सबसे ज़्यादा असर केवल समाज के उसी हिस्से पर पड़ता है जो समाज में सद्भाव बनाये रखने के लिए निरंतर ही कोशिशें करता रहता है. अब समय आ गया है कि इस या इससे मुद्दे पर समाज की भूमिका को और भी अधिक प्रभावी बनाया जाये जिससे अाने वाले समय में किसी की भावनाओं का सम्मान समाज स्वयं ही करने में सफल हो जाये और उसे किसी भी राजनेता या न्यायालय की शरण में न जाना पड़े.                   
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