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शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

कलिजियम - जज और न्याय

                                                              मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद जिस तेज़ी से सभी राजनैतिक दलों ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए नयी एनजेएसी व्यवस्था को अपनाने के लिए संसद में जल्दबाज़ी दिखाई थी वह आज देश के आम नागरिकों को बहुत भारी पड़ रही है. इस व्यवस्था को कोर्ट में चुनौती दिए जाने और उसके अनुपालन पर पूरी तरह से रोक लगाते हुए सभी पक्षों और जनता की राय मांगने से सम्बंधित बातों को शुरू करने से पूरे देश के उच्च न्यायालयों में जजों की पहले से ही कम संख्या पर और भी बुरा प्रभाव पड़ने लगा है. लाखों मुकदमों के बोझ से दबे हुए राज्यों के उच्च न्यायलय अब जजों की ४०% कमी से जूझ रहे हैं जिससे न्याय मिलने में और भी देरी हो रही है. इस मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस केहर सिंह की अध्यक्षता वाली पीठ ने सरकार की इस मांग पर अपनी राय देते हुए आदेश दे दिया है कि वर्तमान कलिजियम प्रणाली से जजों की नियुक्ति को जारी रखा जा सकता है जिससे न्यायालयों के काम काज पर बुरा असर न पड़े और साथ ही उसने सुनवाई पर अपने निर्णय को सुरक्षित भी कर दिया है.
                    इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले समय में कलिजियम सिस्टम से होने वाली नियुक्तियों में उतनी पारदर्शिता नहीं होती थी जितनी एक परिपक्व लोकतंत्र में होनी चाहिए पर सरकार ने भी इस महत्वपूर्ण मसले पर केवल कानून में बदलाव कर जिस तरह से जजों की नियुक्ति में विधायिका के दखल को शुरू करने की कोशिश की थी उसका भी समर्थन नहीं किया जा सकता है. कोई भी व्यवस्था अपने आप में पूरी तरह से निरापद नहीं होती है और जब भी किसी व्यवस्था की कमियों को दूर करना हो तो उस व्यवस्था से जुड़े हुए विशेषज्ञों और कानून का अध्ययन करने के साथ ही व्यापक विचार विमर्श के साथ ही परिवर्तन के बारे में आगे बढ़ने की कोशिशें करने चाहिए जिससे नयी व्यवस्था को अविलम्ब लागू किया जा सके और उसमें किसी भी तरह की कानूनी अड़चने बाद में न आने पाएं. मोदी सरकार ने इस कदम को जिस उत्साह के साथ किया और देश के लगभग सभी दलों ने उसका आँखें बंद कर साथ दिया उससे यही लगता है कि देश की राजनैतिक शक्ति कहीं न कहीं से देश की न्यायपालिका के लिए पूर्ण नियंत्रण की बातें सोचने में लगी हुई है ?
                          देश के लोगों की नज़रों में आज भी न्यायपालिका का बहुत सम्मान है और संभवतः कानून में इतने बड़े परिवर्तन के बाद जिस तरह से इस मसले को चुनौती मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई उससे यही लगता है कि जजों ने भी जनता की उस भावना को समझा जिसके अंतर्गत देश का मानस जजों पर किसी भी तरह का राजनैतिक नियंत्रण स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है. अब जब इस मुद्दे पर सुनवाई पूरी हो चुकी है और संविधान पीठ के सामने बहुत सारे सुझाव भी आ चुके हैं तो अब सरकार को कोर्ट के अंतिम आदेश की प्रतीक्षा करनी चाहिए और उसके अनुरुप ही नए तंत्र का निर्माण करना चाहिए. कोर्ट के आदेश के आने तक अब सरकार के पास यह स्वतंत्रता आ चुकी है कि वह अपने स्तर से देश के उच्च न्यायालयों समेत सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के बारे में आगे बढे क्योंकि जब तक नयी व्यवस्था नहीं आती है और इन स्थानों पर जजों की नियुक्ति करना अवश्यम्भावी भी है तो इस मुद्दे पर तुरंत आगे बढ़ने के बारे में सोचना भी चाहिए. अब समय आ चुका है कि सरकार और संसद में बैठे हुए सभी नेता इस बात को अच्छी तरह से समझ लें कि संविधान ने उनको जो काम करने का अधिकार दिया है वे उसे ही पूरी तन्मयता के साथ कर लें अन्यथा देश के संवैधिनिक ढांचे को कमज़ोर करने की उनकी कोई भी कोशिश कहीं से भी उनके हित में नहीं होगी.   
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