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रविवार, 20 मार्च 2016

उत्तराखंड के नेता और लोकतंत्र

                                                  देश में सामान्य बहुमत पर चलने वाली सरकारों के राजनैतिक दलों के लिए अपने महत्वाकांक्षी नेताओं को सम्भालना कितना कठिन होता है इस बात का अंदाज़ा उत्तराखंड में लगाया जा सकता है जहाँ इस तरह की घटनाएँ इस राज्य के बनने के बाद से सदैव ही सामने आती रही हैं. लोकतंत्र में हर नेता के लिए आगे बढ़ने के रास्ते खुले रहते हैं पर कई छोटे राज्यों में नेताओं को जिस तरह से अपनी महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में रख पाना मुश्किल होता है वहीं सरकार संभाल रहे नेताओं को सरकार चलाने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. भला हो उस दल-बदल कानून का जिसके चलते छोटे समूहों में काम करने वाले नेताओं के लिए अब सरकारों को हिला पाना उतना आसान नहीं रहा फिर भी कई राज्यों में सरकार में ऊंचे और महत्वपूर्ण पदों को चाहने वाले नेता सदैव ही अपनी सरकार को अस्थिर करने का काम किया करते हैं जिससे पूरे राजनैतिक लोगों पर जनता का संदेह और भी गाढ़ा होता है कि इनके लिए सत्ता के आगे किसी भी नैतिकता की बात सदैव ही बेमानी साबित होती है.
                             अपने कार्यों और निर्णयों के चलते कई बार सरकार के मुखिया के खिलाफ असंतोष भी होता है पर उसका इस तरह से अंत की तरफ बढ़ना किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है. केंद्र सरकार के अघोषित निर्णयों के साथ चलना किसी भी राज्यपाल के लिए मजबूरी ही होती है और कई बार केंद्र अपने राज्यपालों के माध्यम से ही विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर करने का काम करने में लग जाता है इस मामले में केंद्रीय सत्ता संभाल चुके मुख्य दलों कांग्रेस और भाजपा का रिकॉर्ड लगभग एक जैसा ही और राजनैतिक शुचिता की बातें ऐसे मौके पर अचानक ही गायब सी हो जाती हैं तथा उनके स्थान पर किसी भी तरह से राज्य में खुद की या अपने समर्थन से बनने वाली सरकार को स्थापित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए जाते हैं. उत्तराखंड के राज्यपाल का २८ मार्च तक हरीश रावत से अपनी सरकार का बहुमत सिद्ध करने को कहना एक सही उदाहरण है और अब यह सरकार पर ही निर्भर करता है कि वह अपने लिए कौन सा दिन चुनती है. राज्य सरकारों के भविष्य का निर्णय केवल विधानसभा के अंदर ही किया जा सकता है ऐसा कल्याण सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुकी है और अब उत्तराखंड के राज्यपाल भी उसी के अनुरूप काम कर रहे हैं.
                           छोटे राज्यों की स्थापना के पीछे जिस तरह से भाजपा ने यह मंशा प्रदर्शित की थी कि इसके माध्यम से बेहतर प्रशासन को चलाया जा सकता है तो जनता द्वारा इस तरह के खंडित जनादेश की स्थिति में आज सबसे अधिक समस्या इन छोटे राज्यों को ही हो रही है. पहले झारखण्ड, फिर उत्तराखंड, दिल्ली और अब फिर से उत्तराखंड के इस घटनाक्रम से यह भी समझा जा सकता है कि छोटे राज्यों में नेताओं की महत्वाकांक्षा कितनी आसानी से प्रबल होकर राजनैतिक अस्थिरता को जन्म देती है. कांग्रेस के पक्ष में जो बात जाती है वह हरीश रावत का जनता से जुड़े होना भी है क्योंकि वे संघर्ष के बाद सामने आये नेता हैं और उत्तराखंड के जल प्रलय के बाद जिस तरह से उन्होंने कार्यों को कराने की कोशिशें की हैं उनकी तारीफ सभी करते हैं साथ ही वे यह भी जानते हैं कि जनता से सीधा संवाद किस तरह तरह से स्थापित किया जा सकता है. बेशक आज हरक सिंह और विजय बहुगुणा मामले को गर्माने में सक्षम हों पर दल-बदल कानून के अंतर्गत आने के बाद वे अगले चुनाव भी नहीं लड़ पायेंगें तो उनके लिए इस संघर्ष का कोई मतलब भी नहीं रह जाने वाला है. भाजपा की यह चाल इन नेताओं को कांग्रेस से बाहर तो करवा देगी पर सीएम बनने को लालायित भाजपा नेताओं की फ़ौज़ से वह खुद कैसे निपटेगी यह देखना भी दिलचस्प हो सकता है.      
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