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शनिवार, 26 मार्च 2016

फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन और कानून

                                                       सरकार द्वारा एक बार फिर से फिक्सड डोज़ कॉम्बिनेशन वाली दवाइयों पर रोक लगाने के आदेश के बाद जिस तरह से इस मुद्दे पर आरोप प्रत्यारोप शुरू हुए हैं उनको देखते हुए आम आदमी के लिए यह समझ पाना असम्भव ही है कि दोनों में से कौन सही और कौन गलत बोल रहा है. निश्चित तौर पर चिकित्सा विज्ञान कुछ दवाइयों को साथ में मिलकर उनके कॉम्बिनेशंस को बेचने की अनुमति देता है पर इसके साथ ही वह इस बात की कोई छूट भी नहीं देता है कि दवा बनने वाली कम्पनियां मनमानी करते हुए कुछ भी साथ में डालकर कोई भी कॉम्बिनेशन बनना शुरू कर दें क्योंकि जिन दवाओं को साथ में डालकर नहीं बनाया जा सकता है आज देश के दवा बाज़ार में उनकी भरमार हो चुकी है जिससे रोगियों को रोगमुक्त करने के हर संभव प्रयास करने के बाद भी दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है तथा गम्भीर रोगों के इलाज में रोगी को समय से ठीक कर पाने में भी आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को चुनौती झेलनी पड़ रही है. सरकार की तरफ से जिस तरह से इस आदेश को जारी किया गया वह किसी भी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता है पर इसके लिए जितनी तैयारियों की आवश्यकता थी सम्भवतः उसे करना सरकार ने उचित ही नहीं समझा.
                                             यदि भारतीय बाज़ार में इस तरह की दवाओं की उपलब्धता पर नज़र डाली जाये तो पिछले एक दशक में छोटे शहरों से उभरने वाली कुछ कम्पनियों की तरफ से इस काम की शुरुवात की गयी थी और जब उनके इन उत्पादों ने बाजार में अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी तो देश ओर विदेश की अन्य बड़ी कम्पनियों को इस दबाव से बचने के लिए भारतीय कानून से बचते हुए कुछ भी बनाने की छूट सी मिल गई जिसके बाद दवा बाज़ार में जो कुछ भी हुआ उसका परिणाम इस प्रतिबन्ध के रूप में सबके सामने आ चुका है. आखिर वे कौन से कारण रहे जिनके चलते दवा कम्पनियों को इस तरह से अनैतिक मार्ग पर चलना पड़ा क्योंकि इसके बिना समस्या की जड़ तक नहीं पहुंचा जा सकता है. एक समय था जब फार्मास्युटिकल कम्पनियों में जाना के लिए इस क्षेत्र की जानकारी होना आवश्यक माना जाता था पर समय बीतने के साथ जिस तरह से इस क्षेत्र का बाज़ारीकरण हुआ और मैनेजमेंट से जुड़े हुए लोग इसमें बहुतायत से आने लगे तो उन्होंने इस बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया कि किस दवा को किस कॉम्बिनेशन में बेचा जा सकता है और किसको नहीं क्योंकि उन्हें इस क्षेत्र की कोई जानकारी ही नहीं थी अंततः वे दवा कम्पनियों को भी ऍफ़एमजीसी कम्पनी की तरह चलाने में सफल हो गए.
                                            इस मामले में दोष सभी पर आता है और डॉक्टर्स को भी इस दोष से मुक्त नहीं कहा जा सकता है क्योंकि भले ही इस तरह के कॉम्बिनेशन बाजार में आने लगे थे पर एक डॉक्टर किस तरह से इस बाज़ार के दबाव में आकर कुछ भी लिख सकता है ? दवा कंपनियों और उनके प्रबंधन ने जो काम शुरू किया था यदि उसकी शुरुवात में ही डॉक्टर्स की तरफ से विरोध किया जाता तो यह बात इतनी आगे तक नहीं बढ़ती और कम से कम समाज में इस बात का सन्देश भी चला जाता कि डॉक्टर्स ने अपनी ड्यूटी तो निभाई. अब सरकार के इस कदम का सभी को पूरा समर्थन भी करना चाहिए और बिना किसी दबाव के इस तरह के किसी भी प्रयास को देश में पूरी तरह रोकने का काम करना ही चाहिए जिससे रोगियों के स्वास्थ्य के साथ दवा कम्पनी इस तरह की मनमानी न कर सकें. राज्य स्तर पर भी इस सबकी निगरानी के लिए एक तंत्र बनाया जाना चाहिए जो बाजार में उपलब्ध इस तरह के कॉम्बिनेशंस और अन्य दवाओं के अधिकतम मूल्यों आदि पर भी नज़र रखने का काम कर सके क्योंकि यदि हम आम भारतीय इस सबमें इतने संवेदनशील होते तो स्वास्थ्य के मामले में इतने बड़े स्तर पर किसी भी तरह की लापरवाही बर्दाश्त न करते.     
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