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सोमवार, 28 मार्च 2016

उत्तराखंड की नियति

                                                                छोटे राज्य के महत्वाकांक्षी नेता किस तरह से अपनी पार्टी के लिए समस्याएं पैदा करते रहते हैं इसको देखने के लिए उत्तराखंड आज सबसे उपयुक्त उदाहरण हो सकता है क्योंकि इस राज्य १६ सला के इतिहास में एनडी तिवारी के अलावा किसी भी सीएम को अपने कार्यकाल पूरा करने का मौका न मिलने से पता चलता है कि हर दल के हर नेता को केवल सीएम ही बनना है और उससे कम किसी भी पद पर वे रुकना ही नहीं चाहते हैं. एनडी तिवारी जिस कद के नेता थे तो उनके खिलाफ किसी भी तरह का विद्रोह कर पाना किसी भी नेता के बूते से बाहर था क्योंकि उनकी अपनी छवि ही ऐसी थी कि उनके खिलाफ जाना मतलब राज्य के विकास के खिलाफ जाना ही माना जाता था जिस कारण से वे छुटपुट विरोध के बाद भी अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रहे वहीं राज्य में विकास को भी गति दे सके. छोटा राज्य होने से सरकार चलाने में जो सुगमता होने के आत्मविश्वास के चलते अटल सरकार ने चार नए राज्यों का गठन किया था वह आज अपने आप में बुरे सपने से अधिक कुछ भी नहीं साबित हुआ है. राज्य में जहाँ कांग्रेस ने भाजपा से लम्बे समय तक राज किया और केवल तीन सीएम से ही उसका काम चल गया वहीं भाजपा को इससे कम समय में पांच बार सीएम बदलने को मजबूर होना पड़ा है.
                             देश में आज सत्ता और विपक्ष में होने से संविधान की व्याख्या पर प्रभाव पड़ जाता है क्योंकि एस आर बोम्मई मामले के बाद से भी जहाँ केंद्र सरकारें ३५६ का दुरूपयोग करने से नहीं चूकती हैं वहीं सत्ता सँभालने वाली कांग्रेस और भाजपा पार्टियां भी पूरी बेशर्मी के साथ सत्ता या विपक्ष में होने के अनुसार संविधान की व्याख्या करने लगती हैं तथा दोनों को ही लोकतंत्र की हत्या तो नज़र आती है पर राज्यों में विरोध के सुरों को हवा देकर दूसरे दलों की सत्ताओं को संविधान के नाम पर हिलाने से वे बाज़ नहीं आती हैं. इस परिस्थिति में आखिर लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए कौन सामने आएगा तथा किस परिस्थिति में देश का राजनैतिक तंत्र यह समझ पाएगा कि लोकतंत्र और संविधान को अपने अनुसार मरोड़कर उसकी व्याख्या करने की नेताओं की कोशिशों से केवल लोकतंत्र का मज़ाक ही बनता है और जिस जनता को लम्बे अभियानों के बाद चुनावों की तरफ लाने में सफलता मिल पायी है वह भी बेकार साबित हो सकती है. यदि किसी राज्य में सीएम को सदन का विश्वास हासिल नहीं है तो उसका निर्णय सदन के अंदर ही होना चाहिए न कि गृह मंत्रालय ओर राष्ट्रपति भवन के पास यह अधिकार होने चाहिए.
                              यूपी में कल्याण सिंह/ जगदम्बिका पाल के रूप में दो सीएम होने के चलते उत्पन हुए संवैधानिक संकट के बाद कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा था कि सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार केवल सदन को ही होता है पर मोदी सरकार ने एक बार फिर से इस आदेश का उल्लंघन करते हुए राज्य में मनमानी करने में कसर नहीं छोड़ी है. जब स्पीकर की तरफ से हरीश रावत को अपनी सरकार के लिए २८ मार्च को विश्वास मत हासिल करना था तो एक दिन पहले राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाना किस तरह से उचित कहा जा सकता है ? यदि हरीश रावत की तरफ से कोई असंवैधनिक काम किये जा रहे थे तो उसके लिए क्या इस तरह का कदम उठाना आवश्यक भी था या बीच का रास्ता निकाल कर किसी तरह से उनको सदन में अपना बहुमत सिद्ध करने का अवसर देना उचित रास्ता होता और उसमें जो भी निर्णय होता उसके साथ केंद्र को अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने का काम करना चाहिए था. विजय बहुगुणा और हरीश रावत में एक यही बुनियादी अंतर है कि रावत मंझे हुए  नेता हैं और बहुगुणा इस मामले में उनके पास भी नहीं फटकते हैं तो निलम्बित विधान सभा को पुनर्जीवित करने और भाजपा द्वारा सरकार चलाये जाने की कोशिशें उसे किस तरह का लाभ या हानि पहुँचाने वाली हैं सम्भवतः इस गणना में भाजपा चूक गयी है और यदि कांग्रेस हरीश रावत पर अपना दांव लगाती है तो भाजपा के लिए अब उनका सामना करना उतना आसान भी नहीं होने वाला है.
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