पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा आईआईटी कानपुर और अन्य एजेंसियों के माध्यम से हिमालयी क्षेत्र में पाये जाने वाले ग्लेशियरों की वर्तमान स्थिति पर किये जाने वाले एक अध्ययन में देश के सामने बहुत ही चिंताजनक स्थिति सामने आ रही है और यदि वर्तमान स्थिति जारी रहती है तो आने वाले ५० वर्षों में हिमालयी नदियों के प्राकृतिक जल स्रोतों के पूरी तरह से सूख जाने की आशंका सच भी साबित हो सकती है. देखने में तो यह बात बहुत ही सामान्य सी लगती है पर इसके दूरगामी परिणामों के बारे में सोचने का सम्भवतः आज किसी के पास समय नहीं है. इन नदियों के जल से जिस तरह से कृषि योग्य भूमि की सिंचाई और जल विद्युत परियोजनाओं के विकास के लिए हम इन पर पूरी तरह से निर्भर हैं तो इनके जलस्रोत सूखने की स्थिति में हिमालय की तराई में रहने वाली विश्व की ४०% आबादी के सामने किस तरह के संकट आ सकते हैं आज इस पर भी किसी तरह से विचार नहीं किया जा रहा है. पर्यावरण को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारणों पर जिस हलके स्तर पर विचार किया जाता है आज वह हमारे लिए सम्भवतः बड़ा संकट लेकर आने की चेतावनी भी है.
उत्तराखंड में स्थित गोमुख और सतोपंत ग्लेशियर से भागीरथी और अलकनंदा को पानी मिलता है जो कि बाद में एक में मिलकर गंगा का रूप धारण करती हैं इन दोनों ग्लेशियरों पर चार साल चलने वाले इस अध्ययन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं क्योंकि विभिन्न स्थानों पर लिए गए पानी के नमूनों में जिस तरह से ग्लेशियर के पानी की मात्रा ३०% तक पायी जा रही है वह इनके तेज़ी से पिघलने की तरफ ही संकेत करती हैं सामान्य तौर पर इन नदियों में १५% तक ग्लेशियर से आने वाला पानी होना चाहिए जबकि इन वर्षों में यह बात सामने आ रही है कि इस पानी के आने की मात्रा दोगुनी हो चुकी है. इसका सीधा सा मतलब यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमालयी ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और आज भी इनको बचाने के लिए हम भारत के रूप में कोई बड़ा प्रयास नहीं कर पा रहे हैं जिससे आने वाले समय में इनके और भी सिकुड़ने या फिर पूरी तरह से समाप्त हो जाने की आशंका से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. इसरो की तरफ से हिमाचल की नदियों के अध्ययन में भी इसी तरह की चिंताएं सामने आने से पूरे हिमालयी क्षेत्र की नदियों और एक बड़ी आबादी के जीवन पर कुप्रभाव पड़ने की सम्भावना इस तरह से स्पष्ट दिखाई दे रही है.
अच्छा है कि इन रिपोर्ट्स के माध्यम से कम से कम सरकार और देश के पर्यावरणविद भी एक राय बना पाने में सफल होंगें और भारत समेत विश्व के कार्बन उत्सर्जन मानकों पर और भी सख्ती से अनुपालन करने की कोशिशें करते हुए नज़र आएंगें. विकसित और औद्योगिक रूप से संपन्न देशों की एक नीति ही रहा करती है कि वे अपने लाभ के लिए पूरी दुनिया के पर्यावरण से किसी भी स्तर तक छेड़खानी करने से नहीं चूकते हैं और मौका मिलने पर विकासशील देशों को हर तरह के प्रतिबंधों में बांधने से भी बाज़ नहीं आते हैं. आज यदि ग्लोबल वार्मिग का यह असर भारतीय उपमहाद्वीप पर पड़ रहा है तो आने वाले समय में इसका दुनिया के अन्य ग्लेशियरों पर भी इसी तरह से असर दिखाई देने वाला है. आज के समय ही सूखे के कारण जिस तरह से देश का ४०% हिस्सा परेशानी झेल रहा है तो इन सदानीरा नदियों के जल स्रोतों के सूखने की विकट स्थिति के बारे में समझा भी जा सकता है. इस दिशा में पूरे देश के सभी लोगों को सोचने की आवश्यकता है क्योंकि सरकारी योजनाएं तो बनायीं ही जाती रही हैं पर उनसे धरातल पर कितना अंतर आया है यह कोई जान नहीं पा रहा है इसलिए अब इसके लिए सभी के समवेत प्रयासों की आवश्यकता है क्योंकि जल के बिना जीवन की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
उत्तराखंड में स्थित गोमुख और सतोपंत ग्लेशियर से भागीरथी और अलकनंदा को पानी मिलता है जो कि बाद में एक में मिलकर गंगा का रूप धारण करती हैं इन दोनों ग्लेशियरों पर चार साल चलने वाले इस अध्ययन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं क्योंकि विभिन्न स्थानों पर लिए गए पानी के नमूनों में जिस तरह से ग्लेशियर के पानी की मात्रा ३०% तक पायी जा रही है वह इनके तेज़ी से पिघलने की तरफ ही संकेत करती हैं सामान्य तौर पर इन नदियों में १५% तक ग्लेशियर से आने वाला पानी होना चाहिए जबकि इन वर्षों में यह बात सामने आ रही है कि इस पानी के आने की मात्रा दोगुनी हो चुकी है. इसका सीधा सा मतलब यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमालयी ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और आज भी इनको बचाने के लिए हम भारत के रूप में कोई बड़ा प्रयास नहीं कर पा रहे हैं जिससे आने वाले समय में इनके और भी सिकुड़ने या फिर पूरी तरह से समाप्त हो जाने की आशंका से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. इसरो की तरफ से हिमाचल की नदियों के अध्ययन में भी इसी तरह की चिंताएं सामने आने से पूरे हिमालयी क्षेत्र की नदियों और एक बड़ी आबादी के जीवन पर कुप्रभाव पड़ने की सम्भावना इस तरह से स्पष्ट दिखाई दे रही है.
अच्छा है कि इन रिपोर्ट्स के माध्यम से कम से कम सरकार और देश के पर्यावरणविद भी एक राय बना पाने में सफल होंगें और भारत समेत विश्व के कार्बन उत्सर्जन मानकों पर और भी सख्ती से अनुपालन करने की कोशिशें करते हुए नज़र आएंगें. विकसित और औद्योगिक रूप से संपन्न देशों की एक नीति ही रहा करती है कि वे अपने लाभ के लिए पूरी दुनिया के पर्यावरण से किसी भी स्तर तक छेड़खानी करने से नहीं चूकते हैं और मौका मिलने पर विकासशील देशों को हर तरह के प्रतिबंधों में बांधने से भी बाज़ नहीं आते हैं. आज यदि ग्लोबल वार्मिग का यह असर भारतीय उपमहाद्वीप पर पड़ रहा है तो आने वाले समय में इसका दुनिया के अन्य ग्लेशियरों पर भी इसी तरह से असर दिखाई देने वाला है. आज के समय ही सूखे के कारण जिस तरह से देश का ४०% हिस्सा परेशानी झेल रहा है तो इन सदानीरा नदियों के जल स्रोतों के सूखने की विकट स्थिति के बारे में समझा भी जा सकता है. इस दिशा में पूरे देश के सभी लोगों को सोचने की आवश्यकता है क्योंकि सरकारी योजनाएं तो बनायीं ही जाती रही हैं पर उनसे धरातल पर कितना अंतर आया है यह कोई जान नहीं पा रहा है इसलिए अब इसके लिए सभी के समवेत प्रयासों की आवश्यकता है क्योंकि जल के बिना जीवन की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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