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शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

साक्षी - मोखरा और चुनौतियाँ

                                          रियो ओलंपिक में चल रहे पदकों के सूखे में भारत का खाता खोलने के लिए जिस तरह से साक्षी मालिक ने अपने दमखम का प्रदर्शन किया उसके बाद अब वह पूरे देश के लिए एक रोल मॉडल बन चुकी है और खास तौर पर खाप पंचायतों के निर्णयों के लिए अक्सर ही सुर्ख़ियों में रहने वाले राज्य हरियाणा और विशेषकर रोहतक जिले के लिए यह जीत एक बड़े परिवर्तन का दौर भी शुरू कर सकती है. खेलों में हरियाणा के लोगों में जूनून की हद आसानी से देखी जा सकती पर पर मान्यताओं में जकड़े हुए राज्य में एक लड़की के इस तरह के दमदार प्रदर्शन के बूते अब राज्य की उस समस्या पर भी आम लोगों और खापों के निर्णयों पर कितना पड़ेगा यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा पर पदकों के खाते को खोलने की शुरुवात जिस तरह से एक रूढ़िवादी समाज की साधारण सी लड़की ने की है जिसके पिता डीटीसी में परिचालक और माता आंगनवाड़ी सुपरवाइज़र हैं वह देश के लिए गर्व की बात ही है. खेलों में लगन किसी को भी उसके लक्ष्य तक कैसे पहुंचा सकती है यह साक्षी से आसानी से सीखा भी जा सकता है. 
                                         साक्षी की उपलब्धि इस मायने में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि उसके दादाजी अपने गाँव में ही शौकिया तौर पर पहलवानी किया करते थे पर उन्होंने कभी इसको अपने लिए एक अवसर बनाने का प्रयास नहीं किया उनकी पोती ने जिस तरह से आगे बढ़कर कुश्ती में प्रदेश और देश का सम्मान बढ़ाया है वह अपने आप में गर्व करने लायक है. साक्षी की यह जीत और उपलब्धि निश्चित तौर पर हरियाणा के उन गांवों में लड़कियों के प्रति उस सोच को बदलने का काफी हद तक काम कर सकती है जहाँ आज भी लिंगानुपात बेहद ख़राब स्तर पर पहुंच हुआ है. खुद साक्षी के गाँव मोखरा की २०११ के जनगणना की तस्वीर पूरे हरियाणा से भी बहुत भयावह थी. हरियाणा में १०००/८३२ के लिंगानुपात के मुक़ाबले इस गांव में १०००/८०० का ही अनुपात रिकॉर्ड में दर्ज है. हालाँकि २०१६ के कुछ आंकड़े अब पूरे हरियाणा में सुधार की तरफ इशारा कर रहे हैं जिसके साथ मोखरा भी उपलब्धियों की तरफ बढ़ गया है और वहां भी लिंगानुपात पहले से सुधरा हुआ दिखाई देने लगा है.
                                  साक्षी की उपलब्धि खुद उसकी अपनी मेहनत और लगन का परिणाम है और वह उस पीढ़ी की लड़कियों से आती है जब हरियाणा में लड़कियों के लिए दुनिया में आना ही एक चुनौती हुआ करता था तो उसके इतने आगे बढ़ने के साथ ही अब समाज को अपनी उस पुरातनपंथी सोच पर भी विचार करना होगा जिसके चलते लड़कियों को जन्म लेने के साथ ही अशुभ माना जाता है और केवल झूठे सामाजिक मान के लिए भ्रूण हत्या करने तक से परहेज़ नहीं किया जाता है. निश्चित तौर पर कड़े कानूनों के चलते स्थितियों में परिवर्तन हुआ है और आने वाले समय में इसमें और भी अधिक सुधार होने की संभावनाएं भी हैं. साक्षी सही मायने में बेटी बचाओ आंदोलन की ब्रांड अम्बेसडर बनने के लिए सबसे उपयुक्त है क्योंकि वह उस समाज के रूढ़िवादी हिस्से से आती है जहाँ पर सुधार की सबसे अधिक संभावनाएं भी हैं. बेटियां बेटों से किसी मामले में कम नहीं होती हैं और इस बात को साक्षी ने साबित करके दिखा भी दिया है इसलिए अब समाज और सरकार की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि पूरे देश में लड़कियों को खेलों की तरफ अच्छी तरह से बढ़ाने और उनको अंतर्राष्ट्रीय स्तर का खिलाडी बनाने के लिए बारे में ज़िले स्तर पर सही कार्ययोजनाएं बनायीं जाएँ जिससे आने वाले समय में साक्षी जैसी लड़कियां समाज के हर हिस्से में अपनी उपलब्धियों को दर्ज करवा सकें.   
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