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शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

प्रतिस्पर्धा और बीएसएनएल

                                                   एक तरफ जहाँ रिलायंस समूह अपने एक लाख पचास हज़ार करोड़ के भारी भरकम निवेश के बाद उपभोक्ताओं को देश में मोबाइल पर कॉल करने के लिए निशुल्क सुविधा देने की बात कर रहा था तो वहीं भारत संचार निगम लिमिटेड बाजार की आवश्यकताओं को न समझते हुए अपने दो श्रेणी के पोस्टपेड ग्राहकों के लिए कॉल दरें मंहगी करने में लगा हुआ था. अभी तक बीएसएनएल के ३२५ और ५२५ पोस्टपेड प्लान सिर्फ इसलिए ही लोकप्रिय थे क्योंकि वे उपभोक्ताओं को सही मूल्य पर उचित सेवा देते थे पर कुछ माह पूर्व पहले १५ सेकंड की पल्स को ३० का किया गया और अब बिना ग्राहकों को सूचित किये ही इसे ६० सेकंड का कर दिया गया है तो निश्चित तौर पर उन व्यापारी उपभोक्ताओं के लिए ये दोनों प्लान बेकार ही हो जायेंगें क्योंकि उनको दिन में कई बार कुछ सेकण्ड्स की बात करके ही अपने व्यापार से जुड़ी हुई जानकारी कम खर्चे में मिल जाती थी और उनके बिलों में भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी होने की भी संभावनाएं हैं. उपभोक्ताओं को इस तरह से अलोकप्रिय क़दमों के माध्यम से यदि अपने साथ जोड़े रखने का सपना केंद्र सरकार और निगम का है तो आने वाले समय में मुकेश अम्बानी द्वारा बीएसएनएल का अधिग्रहण करने की संभावनाओं को नकारा भी नहीं जा सकता है.
                                             टेलीकॉम  बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनाये रखने के लिए अभी तक बीएसएनएल का जो योगदान रहा है उससे इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसकी तरफ से ठीक ठाक सेवाओं के लिए जिस स्तर पर चार्ज लिया जा रहा था उसके चलते भी निजी क्षेत्र को कई राज्यों में उस पर बढ़त नहीं मिल पा रही थी. २०१४ में बीसएनएल की सेवाओं की जो गुणवत्ता थी आज लगातार मंहगी होती जा रही इसकी सेवाएं कहीं से उनके मुक़ाबले नहीं टिक पा रही हैं. सरकार की तरफ से जिस तरह से यह कहा जा रहा है कि पिछले वित्तीय वर्ष में उसने निगम को लाभ की स्थिति में पहुँचाया है तो आने वाले समय में उसे इसमें बड़े नुकसान के लिए भी तैयार रहना होगा क्योंकि उपभोक्ताओं में बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नंबर पोर्ट करके दूसरे सेवा प्रदाता के पास जाने में कोई संकोच नहीं करेगा तो उस परिस्थिति में सरकार और निगम प्रबंधन के पास इसे बचाने के लिए कितने विकल्प शेष बच पायेंगें यह किसी को दिखाई नहीं दे रहा है.
                             एक तरफ जहाँ पहले से स्थापित मोबाइल कंपनियों के लिए जियो एक चुनौती के रूप में सामने आया है वहीं आज भी सरकार और बीएसएनएल प्रबंधन आने वाली इस प्रतिस्पर्धा से अनजान बनते हुए अपने उपभोक्ताओं पर इस तरह का आवश्यक बोझ डालने में लगे हुए हैं. निजी क्षेत्र की कंपनियां तो किसी तरह अपने को इस संग्राम में बचाने में सफल भी हो सकती है क्योंकि उन्हें अपने लाभ को भी ध्यान में रखना है पर सरकारी बाबुओं और सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के चलते बीएसएनएल आने वाले समय में किस तरह से बाजार में टिक पायेगा इस बात पर भी संदेह है. बीएसएनएल का बने रहना भी मोबाइल उपभोक्ताओं के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके चलते ही कॉल दरें निचले स्तर पर बनी रहती हैं ज़रा उस स्थिति की कल्पना ही कीजिये जिसमें बीएसएनएल मैदान में न हो तब सभी निजी ऑपरेटर अपनी मनमानी को किसी भी हद तक ले जाने में सफल हो सकते हैं और तब देश चला रही सरकार के पास भी इतने बड़े स्तर पर संसाधन जुटाने के साथ दूर संचार क्षेत्र में प्रवेश करने की संभावनाएं समाप्त हो जायेंगीं. एक बात तो स्पष्ट ही हो चुकी है कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में सार्वजनिक उपक्रमों पर जिस तरह से चोट की जाती है वह उनकी स्वदेशी भावना से किसी भी स्तर पर मिलती हुई नहीं दिखती है.     
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