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शनिवार, 17 सितंबर 2016

अरुणाचल का राजनैतिक भ्रम

                                      छोटे राज्य निश्चित तौर पर विकास का पैमाना मायने जा सकते है पर जिस तरह से राजनैतिक अस्थिरता के लिए भारत के छोटे राज्य निरंतर ही पुराने स्थापित राजनैतिक मानदंडों की अवहेलना करते जा रहे हैं उससे आने वाले समय में देश की राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ने वाले असर को नकारा नहीं जा सकता है. पिछले वर्ष शुरू हुए अरुणाचल संकट के बाद जिस तरह से राजनैतिक घटनाक्रम लगातार बदल रहे हैं और कल उसकी जो परिणीति हुई है वह किसी भी तरह से सही नहीं कही जा सकती है. पहले अरुणाचल के एक नबाम तुकी विरोधी गुट को यह लग रहा था कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व उनकी नहीं सुन रहा है तो उन्होंने पीपीए के साथ जाने की राह चुनी थी पर अब जब वहां पर जुलाई में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार का नेतृत्व परिवर्तन भी कर दिया गया था तो उसके बाद स्थानीय पार्टी के साथ खड़े होना संभवतः इन नेताओ की मजबूरी को ही अधिक दर्शाता है क्योंकि अब वे खुद सरकार में थे और उनकी बातें सुनी भी जा रही थीं तो आखिर वे कौन से कारण सामने आये जिनके चलते ४४ कांग्रेसी विधायक सीएम समेत एक क्षेत्रीय दल में शामिल होने के लिए तैयार हो गए ? अगर उनको केंद्रीय नेतृत्व से अब भी कोई परेशानी थी या उनकी बात नहीं सुनी जा रही थी तो वे अपनी राज्य कांग्रेस भी अलग कर सकते थे पर उनका पीपीए में शामिल होना परदे के पीछे की कोई और कहानी का बयान भी करता है. 
                               नैतिकता और सामाजिकता के स्तर पर भले ही यह सब सही न हो पर संविधान में दल बदल करके इस तरह से पूरी सरकार का दल बदल जाने को सही ठहराया गया है इसलिए यह आशा तो नहीं की जानी चाहिए कि वहां की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन जल्दी ही दिखाई देने वाला है पर इस तरह की राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता के चलते संभवतः सीमान्त प्रदेश में नयी समस्याएं भी सामने आ सकती हैं. राजनैतिक तौर पर कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा धक्का भी है क्योंकि पूरी सरकार के इस तरह से दल बदल करने से यह सन्देश भी जता है कि कांग्रेस के अंदर नीचे से ऊपर तक सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और उसके हाथों से कुछ राज्य तो बिना चुनाव लड़े ही  फिसलते जा रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना होगा कि अब क्षेत्रीय क्षत्रपों की अनदेखी नहीं की जा सकती है तथा केवल ऊपर के आदेशों को कोई भी ताकतवर स्थानीय नेता मानने के लिए उतना तत्पर नहीं दिखाई देता है जैसा पहले हुआ करता था. ऐसी स्थिति में अब सरकार चलाने के लिए केवल चुनाव जीतने का मन्त्र ही काफी नहीं कहा जा सकता है उसके बाद सरकार को सही दिशा देने के बारे में भी केंद्रीय नेतृत्व के आगे बढ़ने की भी बहुत आवश्यकता होती है.
                    अरुणाचल में निश्चित तौर पर कुछ स्थानीय कारक अवश्य ही काम कर रहे हैं और जिस तरह से इस राज्य में भाजपा अपने प्रभुत्व को ज़माने की कोशिशें कर रही है यह उसी नीति का एक हिस्सा भी हो सकता है क्योंकि इस तरह से बनने वाली नयी सरकार भी एक गैर कांग्रेसी सरकार ही होगी और यदि निकट भविष्य में पीपीए का भाजपा में विलय हुआ तो भाजपा को एक बड़ी शक्ति मिल जाएगी तथा कांग्रेस के लिए अपने संगठन को एक बार फिर से खड़ा करने के लिए कोशिशें करनी पड़ेंगीं. यदि इस समय पीपीए और भाजपा एक दूसरे के साथ आकर आराम से सरकार चलाने में सफल होते हैं तो भी आने वाले अगले विधान सभा चुनावों में सत्ता के लिए होने वाली लड़ाई में नए कोण भी बन जायेंगें जो आने वाले समय में इस राज्य में नयी तरह की समस्याएं और राजनैतिक अस्थिरता को लेकर भी सामने आएगी. निश्चित तौर पर कमज़ोर कांग्रेस भाजपा को आगे बढ़ने की शक्ति देगी पर स्थानीय नेताओं की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना किसी भी परिस्थिति में किसी भी सरकार और दल के लिए संभव नहीं होने वाला है. उत्तराखंड, झारखण्ड में लंबे समय से इस तरह की समस्या से कांग्रेस और भाजपा को लगातार दो चार होना पड़ ही रहा है और आने वाले दिनों में अरुणाचल में यह समस्या और भी विकट हो सकती है.        
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