मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

अयोध्या का युद्ध

                                                अयोध्या के मंदिर मस्जिद विवाद में जिस तरह से समय के साथ स्थितियों में परिवर्तन आता चला गया है उसे देखते हुए अब यह कहा जा सकता है कि यह मुद्दा केवल चुनावी हथियार की तरह प्रयोग किया जाने वाला एक ऐसा उपाय रह गया है जिसे भाजपा हुंकार से लेकर संकल्प तक ले जा चुकी है. साथ ही आज इसकी स्थिति यह है कि देश की दो बड़ी पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के इस मुद्दे पर रवैये में कोई अंतर् नहीं दिखाई दे रहा है ? कालातीत में हुई ज़बरदस्ती और धर्म परिवर्तन के लिए हुई हिंसा से कोई इंकार नहीं कर सकता है जिसके कारण देश की स्थिति में बहुत परिवर्तन भी दिखाई दिया था पर आज यह मुद्दा जिस तरह से उग्रता की तरफ लौटता दिखाई दे रहा है उससे आम हिन्दुओं में कट्टर छवि रखने वाले पर वास्तविकता में व्यापारिक हितों को प्राथमिकता देने वाले पीएम मोदी के लिए सबसे बड़ी समस्या खडी होने वाली है क्योकि अब उन के साथ पूरी भाजपा पर भी समाज और संतों का यह दबाव है कि राममंदिर के बारे में भाजपा की सरकारें अपनी घोषित प्रतिबद्धता को पूरा करें।
                              इस मुद्दे का जीवंत रहना कहीं न कहीं से संघ उसके संगठनों और राजनैतिक मंच भाजपा के लिए चुनावों में काफी सहजता ला देता है जिससे आम हिन्दू जनमानस को मंदिर की आस्था से जोड़कर उसको भाजपा के पक्ष में जोड़े रखने के लिए उचित सामग्री भी मिल जाती है. आज पीएम मोदी के सामने यह मुद्दा एक चुनौती के रूप में आ गया है पर हिन्दू संगठनों की उग्रता के खिलाफ उन्होंने जिस तरह से गुजरात में सब कुछ छोड़कर अपना और गुजरात का नया स्वरुप गढ़ा था आज संभवतः वे उसका अखिल भारतीय स्तर पर प्रदर्शन कर दें और मोदी शाह एक बड़ा खतरा उठाते हुए इस मुद्दे को पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर ही छोड़ दें क्योंकि उससे मोदी को अपनी उस छवि को बनाये रखने में सफलता मिलेगी जो उन्हें विकास परक नेता साबित करती है. जिस तरह से पूरे देश के साथ केंद्र में भी मोदी और उनकी सरकार के लिए कमतर आंकी जा रही कांग्रेस अपने अध्यक्ष राहुल गाँधी के साथ आँखों में आँखें डालकर बातें कर रही है और टीवी चॅनेल्स में भाजपा के प्रवक्ताओं के सामने विकल्प सीमित होते जा रहे हैं उससे भी जनता में मोदी सरकार की नकारात्मक छवि बनने का अंदेशा बढ़ता जा रहा है.
                               ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या मोदी तुरंत संतों की मांग पर ध्यान देते हुए संसद के आगामी और इस लोकसभा के अंतिम पूर्ण शीतकालीन सत्र में एक अध्यादेश के माध्यम से राममंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने की तरफ बढ़ेंगें या अपने विकास परक मन्त्र को आगे रखते हुए सुप्रीम कोर्ट को फैसले लेने के लिए छोड़ देंगें ? निश्चित तौर पर अध्यादेश से वे जनता में यह सन्देश देने में सफल हो सकते हैं कि उनकी सरकार इससे अधिक कुछ भी नहीं कर सकती थी और आने वाले समय में यदि संसद में उनका पूर्ण बहुमत हुआ तो वे इसे कानून के रूप में लागू करवा सकते हैं। पर अध्यादेश से उपजने वाली परिस्थिति में विवश में देश में अस्थिरता का सन्देश भी देगा जिससे आने वाले समय में देश की आर्थिक प्रगति पर भी बुरा असर पड़ने की सम्भावना भी है. ऐसी स्थिति में मोदी स्वयं ही इस मामले को अदालत पर छोड़कर अपनी विकासपरक छवि को बनाये रखने के लिए और जतन कर सकते हैं जिससे उनकी उदार हिन्दुओं के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उदार छवि मज़बूत हो और वे अध्यादेश को अंतिम विकल्प के रूप में आज़माने की सोचकर बैठे हों.
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