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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

यूपी और कांग्रेस

                                                      दिसंबर २०१८ के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी हुई है वह निश्चित रूप से देश के लोकतंत्र और खुद कांग्रेस के लिए भी किसी हद तक सही कही जा सकती है. देश में मोदी का युग शुरू होने के बाद खुद पीएम मोदी और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ राज्य व तहसील स्तर के नेताओं की तरफ से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया जाने लगा था वह यथार्थ से बहुत परे था फिर भी भाजपा अपने वोटर्स को येह समझाने में कहीं न कहीं सफल होती लग रही थी कि अब देश को कांग्रेस मुक्त करने का समय आ गया है. यह हुंकार भरते समय पीएम मोदी और भाजपा ने जो सबसे बड़ी गलती की आज हिंदी बेल्ट में उसका नुकसान होने का वह भी बड़ा कारण है क्योंकि देश की जनता को राजनैतिक व्यवस्था से इतना अधिक अंतर् यहीं पड़ता जितना उसकी समस्याएं दूर न होने से पड़ता है. भाजपा कांग्रेस पर हमलावर होने के चक्कर में अधिकांश बार जनता की उस नब्ज़ को थामने में विफल सी लगी जिसके लिए उसे कांग्रेस पर प्राथमिकता दी गयी थी.
                    कांग्रेस के लिए अब यह कुछ बढ़त वाली स्थिति हो गयी है क्योंकि केंद्र का रास्ता यूपी से होकर ही जाता है. २००९ में कांग्रेस ने यूपी में जिस तरह से २० सांसदों के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार किया था तो इस बार उसके लिए यही चुनौती एक बार फिर से सामने आने वाली है. यूपी में सपा-बसपा की तरफ से अभी तक उसकी जिस तरह से अनदेखी की जा रही थी अब वह संभव नहीं होगी क्योंकि तीन राज्यों में सरकार बनाने के साथ ही कांग्रेस आने वाले समय में लोकसभा और राज्यसभा में अपनी वर्तमान स्थिति को सुधारने की स्थिति में पहुँच चुकी है. सपा बसपा के अपने मंसूबे हैं और यह भी संभव है कि वे आज भी अपने गठबंधन में कांग्रेस के लिए सम्म्मानजनक सीटें छोड़ने के लिए राज़ी न हों पर भाजपा से नाराज़ वोटर्स को कांग्रेस की तरफ होने का रुझान करने के लिए काफी है कि अब कांग्रेस पहले की तरह किसी भी समझौते पर नहीं पहुँचने वाली है. कांग्रेस को अपने दीर्घकालिक हितों के लिए अब यूपी में वही नीति अपनानी होगी जो सपा बसपा ने राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ में अपनायी थी. कांग्रेस को सपा के लिए कुछ सीटें छोड़ने की अपनी परंपरा को चालू रखते हुए अन्य सभी सीटों पर मज़बूत दावेदारी करनी ही होगी तभी वह राष्ट्रीय परिदृश्य में अपने प्रदर्शन में सुधार करने की स्थिति में आ सकेगी.
                         कम सीटों पर चुनाव लड़ने की स्थिति में जीतने का प्रतिशत कितना भी अच्छा होने अधिकतम सीटें और वोट प्रतिशत को सुधारना मुश्किल होगा जो पार्टी की दीर्घकालिक नीतियों के लिए सही नहीं होगा. आज प्रदेश में ऐसे वोटर्स की संख्या बहुत है जिन्होंने २०१४ में भाजपा का वोट दिया था पर यूपी में किसी गठबंधन के सामने आने पर वह वोट कांग्रेस को तो मिल जायेगा पर सपा बसपा में वह किसी भी परिस्थिति में जाने वाला नहीं है. इसलिए यूपी की ज़मीनी हकीकत को समझते हुए कांग्रेस के लिए यह आवश्यक होगा कि वह भाजपा से विभिन्न मुद्दों पर नाराज़ वोटर्स के लिए हर सीट पर खुद को एक मज़बूत विकल्प के रूप में रखे. सपा बसपा की संभावनाएं केवल यूपी में ही हैं और आने वाले समय में कांग्रेस यदि इनके पीछे खड़े होना चाहती है तो २०२४ तक काम चुनावों में उसके लिए सीटें बढ़ने की संभावनाएं स्वतः ही समाप्त हो जाएँगी। अब यह राहुल गाँधी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर ही निर्भर करेगा कि वे किस तरह से आगे बढ़ना चाहते हैं क्योंकि यूपी में अकेले लड़कर २०१९ में जीतने वाले सांसदों की संख्या भले ही कम हो पर इससे पार्टी को भविष्य के लिए प्रदेश में अपना संगठन फिर से खड़ा करने में बहुत मदद मिल सकती है।         
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