आख़िरकार देश के राजनैतिक नेतृत्व ने एक बहुत बड़ी समस्या से निपटने के लिए एक कार्य योजना बनाकर उस पर अमल करने की दिशा में बहुत सधे क़दमों से चलना भी शुरू किया है। आज तक नक्सल आन्दोलन के मुख्य कारण पर शायद ही कभी ठीक से विचार किया गया हो ? देश में बहुत सारी विविधता है और साथ ही सदियों से या यूँ कहें कि मनुष्य की उत्पत्ति से ही वन संपत्ति पर आदिवासियों का पूरा हक़ रहा है। विकास की अंधी दौड़ में दौड़ते हुए हम सभी लोग ही कहीं यह भूल गए थे कि जंगलों में रहने वालों के लिए यह वन उपज ही उनकी जीविका का साधन है। जब हम पढ़े लिखे और विकास का ढिंढोरा पीटने वाले लोगों ने वन भूमि का उपयोग अपने हितों के लिए करना शुरू कर दिया और वहां के मूल आदिवासियों को उन सब से वंचित कर दिया तो शायद उनके पास कोई और चारा नहीं था। ऐसे में सत्ता और समाज के दुश्मनों ने उन सभी को बरगलाने का काम शुरू कर दिया। उस समय भी सरकारों ने अपना काम बखूबी नहीं निभाया। हर समस्या का एक कानूनी पहलू होता है पर साथ ही उसके मानवीय पहलू को किसी भी स्थिति में अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। देश में नक्सल प्रभाव केवल वहीं पर क्यों रहा जहाँ पर स्थानीय लोगों के हितों पर चोट कर बाहर के लोगों को प्राथमिकता दे दी गई।
अच्छा है कि देश में एक ऐसा व्यक्ति गृह मंत्री है जो कानून पर चलने के साथ मानवता को बहुत ऊंचा स्थान देने में विश्वास करता है। यही कारण है कि संघ परिवार ने भी आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर चिदंबरम की बहुत तारीफ की है। अब यह सारा कुछ स्थानीय प्रशासन पर निर्भर करता है कि वह इस अवसर को किस स्तर पर लागू कर पता है । इस योजना का प्रारम्भ झारखण्ड से किया जा रहा है जहाँ पर वर्तमान में केन्द्र का शासन चल रहा है जिससे अधिकारियों के पेंच सीधे ही ढंग से कसे जा सकेंगें। अब जनता का विश्वास जीतने के साथ ही मानवता के आधार पर किए जाने वाले काम ही देश से नक्सल आन्दोलन के पैर उखाड़ने में सफल हो सकेंगें। कश्मीर में जनता का विश्वास जीतने की प्रक्रिया के सकारात्मक परिणाम सबके सामने हैं। देश में अच्छे वातावरण के लिए प्रार्थना और इस योजना के सफल होने कि कामना.......
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
मानवता के खिलाफ जारी तमाम हिंसक संघर्षों को राज्य की विफलता से जनता में उपजे असंतोष का नतीजा बताने की जिम्मेदारी लिए घूमने वाले इन बौद्धिक लोगों को भला कौन समझाए ? ये तो अपनी ही धुन में जिद्दी बने बैठे हैं ! क्या इन्हें नहीं पता कि जिस भारतीय लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं वहां की सरकार बहुमत ने चुनी है . पहले की तरह चुनावों में भ्रष्टाचार भी नहीं होता है . कुल मिला कर जनता की सरकार है . क्या सर्वहारा / धर्म /सम्प्रदाय /क्षेत्र आदि के नाम पर हिंसक संघर्ष जायज है ? और जो लोग बौद्धिकता का दावा करते हुए हिंसा का समर्थन करते हैं अथवा उसे किसी घटना का पर्याय बताते हैं वो सही है ? अकसर आप सुनते होंगे , कभी कोई ब्लास्ट हुआ तो दिल्ली में बैठे लोकतंत्र के नाजायज औलादों द्वारा कहा जाता है कि यह तो फलाने दंगे का , नरसंहार का , विवादित स्थल तोड़े जाने का नतीजा है . कहीं पर सामूहिक रूप से नक्सल हिंसा में आम जन की मौत हो जाए तब भी बचाव में आवाज आती है कि यह सरकार द्वारा उपेक्षित,पूंजीवादियों द्वारा सताए लोगों का विरोध है . लेकिन इस बात को नहीं देखते कि ऐसे हिंसक हमलों में कौन मारा जाता है ? क्या देश और समाज को चलाने वाले नीति निर्धारक या पूंजीवादी मारे जाते हैं ? नहीं , यहाँ भी आम नागरिक ही शिकार होता है . क्या आम आदमी हीं तो माओवादी है कहने से काम चल जायेगा ?काम नहीं चलेगा , अब जबाव देना होगा इनको कि क्या बिहार के खगरिया में मारे गये सोलह निर्दोष किसान , झारखण्ड में मारा गया पुलिस अधिकारी , असाम में मारे गये लोग आम आदमी नहीं थे ? क्या हिंसक हमलों में मृत इन नागरिकों का कोई मानव अधिकार / संवैधानिक अधिकार नहीं था ? परन्तु , अफजल और कोबाड़ जैसे नरभक्षियों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करने वाले इन कलम के दलालों को लाल ,पीले ,हरे, चश्मे से वास्तविकता नज़र नहीं आती है .
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