उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में एक कहावत कही जाती है कि "घर के परसैय्या, अंधेरिया रात" .कल इस कहावत को उत्तर प्रदेश में विधान सभा में फिर से जीवंत कर दिया गया. सरकार ने बड़ी आसानी से विधान मंडल के दोनों सदनों के सदस्यों के वेतन फिर से बढ़ा दिए. यह सही है की इतने पैसों में भी ये माननीय अपने क्षेत्र की सेवा कर नहीं पायेंगें जितना कुल वेतन कहा जा रहा है उससे ज्यादा तो इनके बड़े बड़े वाहनों में राजधानी आने जाने में ईंधन ही लग जाता है. जो प्रदेश के माननीय होने से पहले मुफलिसी में जी रहे होते हैं उन्हें इन तीस हज़ार रुपयों से ही इतनी सम्पन्नता मिल जाती है कि 20/२५ लाख का वहां उनकी समझ में ही नहीं आता है ? सरकार चाहे इनके वेतन को २ लाख रूपये महीने का कर दे पर इनसे यह पूछने की हिम्मत ज़रूर रखे कि कौन सा जादुई चिराग इनके हाथ लग गया है जिसके द्वारा ये लोग अचानक संपन्न हो जाते हैं और प्रदेश की जनता जिसके दिए गए कर से इनको वेतन मिलता है रोज़ गरीब ही हुई जा रही है ?
किसी को कोई मतलब नहीं है कि कौन क्या कर रहा है पर जब माननीय कहलाने वाले ये लोग ही इस तरह के मामलों में जनता के सामने बेपर्दा हो जाते हैं तो उनकी इज्ज़त क्या होगी ? मैं यहाँ पर सभी से विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि वेतन में विसंगति नहीं होनी चाहिए पर विधायकों के लिए मंहगाई है तो क्या राज्य कर्मचारियों के लिए नहीं है ? सरकार को सभी के बारे में समान रूप से सोचना चाहिए तभी वह सर्व जन की सरकार बन पायेगी वरना विधायकों की सरकार तो हमेशा से ही रही है और भविष्य में भी रहती रहेगी. प्रदेश में काम करने वालों की कमी है राज करने वालों की नहीं फिर भी एक ऐसी सरकार जिसमें शामिल अधिकांश लोगों ने जनता के दुःख दर्द को पास से समझा हो वह भी इस तरह से काम करे तो गरीब जनता के बारे में कौन सुनेगा ? बस इसलिए ही कहा जाता है कि जब कोई दावत में बैठा हो और अँधेरी रात हो तो वो ध्यान रख कर वहीँ पर अच्छी तरह से सेवा करता है जहाँ उसके अपने बैठे होते हैं और अँधेरी रात में कोई यह भी नहीं देख पाता है कि किसने किसको कितना दे दिया ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
nice
जवाब देंहटाएंit's a great post
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