१४ अप्रैल को अम्बेडकर नगर में राहुल गाँधी के एक कार्यक्रम ने मायावती की नींदें उड़ा दी हैं. पता नहीं उन्हें इस बात की सलाह किसने दे दी है कि बाबा साहब की जयंती पर उनके गढ़ में ही चुनावी बिगुल फूंकने से कांग्रेस बहुत आगे निकल जाएगी ? यदि इस कार्यक्रम को किसी भी अन्य कार्यक्रम की तरह हो जाने दिया जाता तो शायद इन यात्राओं को निकालने के लिए कांग्रेस को बहुत जद्दो जहद करनी पड़ती पर जो काम कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए था वह बसपा सरकार की मुखिया और उनका पूरा तंत्र मिलकर कर रहा है. इस यात्रा पर जितने बंधन लगाये जायेंगें राहुल का काम उतना ही आसान होता चला जायेगा. लगता है कि राहुल ने माया को मानसिक द्वन्द में हरा दिया है तभी वे राहुल के दलितों के पास जाने मात्र से ही घबरा कर उनके हर कदम को रोकने का प्रयास करती नज़र आती हैं ? देश में केवल दलित ही वोटर नहीं हैं ... हाँ यह भी है कि दलित वोटरों को जिस तरह से माया अपनी बपौती मानती हैं उस स्थिति में राहुल का कोई भी कदम उन्हें बहुत बेचैन कर देता है. देश में सभी को अपनी राजनीति करने का हक़ है पर क्या माया यह भूल गयी हैं कि उन्होंने दलितों के इकठ्ठा करने के लिए अन्य जातियों को किस तरह के विशेषणों से नवाज़ा था ? आखिर में राजनैतिक मजबूरी ने उन्हें भी इन्हीं जातियों को भाव देने के लिए मजबूर कर दिया. जो पार्टी जाति धर्म नहीं मानती थी उसमें ही जातीय आधार पर भाई चारा बनाया जाने लगा ?
वैसे जिस तरह के सलाहकार इस समय माया को इस तरह की सलाह दे रहे हैं वे उनके बसपा और दलित आन्दोलन के हितैषी तो नहीं हो सकते हैं क्योंकि बिना बात में ही राहुल से भय भीत होकर उन्होंने कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में प्रदेश में मुख्य धारा में खड़ा कर ही दिया और अब जिस तरह से वे अपनी रैलियों में सीधे राहुल और कांग्रेस पर चोट करती नज़र आने लगीं हैं वही तो राहुल की मंशा थी और है क्योंकि जब सूबे की मुखिया ही मान लें कि कांग्रेस ही उनके मुकाबले में है तो कांग्रेस का काम बहुत आसान होने वाला है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस भी नहीं चाहेगी कि माया का ध्यान मुलायम या भाजपा की तरफ जाये ? जब माया कहती हैं कि कांग्रेस का दलित एजेंडा एक धोखा है तो राहुल के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. माया ने नि:संदेह दलितों के सम्मान के लिए बहुत कुछ किया है जिसके लिए उनका नाम इतिहास में दर्ज हो चुका है पर क्या उन्हें अब अपने पर, अपने एजेंडे पर और दलितों पर भरोसा नहीं रह गया है ? वे आखिर क्यों हमेशा ही राहुल के हर कदम से सशंकित रहा करती हैं ? फिलहाल तो लगता है कि माया ने बाबा साहब को भी अपनी बपौती मान रखा है और उन्हें भी पूरी तरह से कब्ज़े में लेने की कोशिशें जारी हैं. आख़िर क्यों माया बाबा साहब को केवल दलितों का ही नेता मनवाने पर तुली हुई हैं जबकि पूरा देश उन्हें एक विद्वान की हैसियत से हमेशा याद करना चाहता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
बाबा साहेब युग पुरुष थे.
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