दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आज भी लोगों को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का किस तरह से लोग फायदा उठाते हैं इसका उदाहरण ५ जुलाई के भारत बंद के दौरान फिर से दिखाई देने वाला है. यह सही है कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक़ दिया गया है पर जिस तरह से देश के हित में किया जाने वाले बंद और हड़ताल आम होते जा रहे हैं उसको देख कर यह लगता है कि आख़िर किसी स्तर पर इन सब बातों पर भी लगाम लगायी जानी चाहिए. लोकतंत्र में जनता का समर्थन और विरोध अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसे जुटाने के लिए सभी दल कुछ न कुछ ऐसा करते ही रहते हैं जिससे उनके वोट बचे रहें और सरकार के वोट कटते रहें. यही तो लोकतंत्र की मूल भावना है कि सभी को सब कुछ कहने सुनने का हक़ मिला हुआ है.
अगर इस बात पर विचार किया जाये कि आज कल किये जाने वाले इस तरह के बंद किस तरह से जन जागरण कर पाते हैं तो शायद निराशा ही हाथ आएगी क्योंकि बंद के नाम पर जिस तरह से जन जीवन को ठप करने की साजिश की जाती है उसका किसी भी तरह से समर्थन नहीं किया जा सकता है. राजनैतिक लोगों की अपनी मजबूरी हो सकती है पर आम लोगों की क्या मजबूरी है कभी राजनैतिक दल इस बात पर भी विचार करते हैं या करना भी चाहते हैं ? एक बंद कितने लोगों पर भारी पड़ सकता है इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है ? इस तरह की किसी अराजकता में फंसे हुए किसी रोगी को उपचार मिलने में देरी हो सकती है या किसी का ज़रूरी काम रह सकता है ? सबसे बड़ी बात जो यह होती है कि इन बंद के नाम पर सार्वजानिक संपत्तियों के साथ जिस तरह से लूट पाट की जाती है उसका क्या औचित्य है ? देश कितना भी क्यों न समृद्ध हो जाये पर इस तरह की बर्बादी को कभी भी नहीं झेल पायेगा ? एक तरफ हम सभी जानते हैं कि बढ़ती हुई आबादी के कारण सारे विकास के काम कम ही लगते हैं वहीं दूसरी तरफ मौका मिलने पर हम अपनी रेल और राज्य परिवहन की बसों पर गुस्सा उतारने से नहीं चूकते हैं ? आखिर क्या औचित्य है ऐसे किसी भी आन्दोलन का जो जनता की जेब पर ही भरी पड़ जाता है ?
एक बात जिस पर अविलम्ब विचार किया जाना चाहिए कि आखिर क्यों इस तरह के आयोजनों में राजनैतिक दल अपने कार्यकर्ताओं को इतनी छूट दे देते हैं ? सभी दलों को इस तरह के बंद का आयोजन करने पर विचार करना चाहिए और एक दिन में केवल एक ही पार्टी को इस तरह का विरोध जताने का अवसर दिया जाना चाहिए जिससे यह पता चल सके कि किस दल के कार्यकर्ताओं की उद्दंडता के कारण सार्वजानिक संपत्ति को अधिक नुकसान पहुँचता है ? बंद के आह्वाहन के समय और दिन होने वाले किसी भी सार्वजानिक नुकसान को सम्बंधित राजनैतिक दल के खाते से पूरा किया जाना चाहिए और जिस जगह पर अधिक अराजकता हो वहां के कार्यकर्ताओं को केवल दिखावे के लिए ही सही कुछ दिनों के लिए जेल भी भेजना चाहिए जिससे वे आन्दोलन को अराजक नहीं बना सकें ? इन सभी बातों का अनुपालन नहीं करने वाले दलों को चेतावनी भी दी जाये और साथ ही इनकी मान्यता रद्द करने पर भी विचार किया जाये. यह सब मुंगेरी लाल के सपने की तरह बहुत हसीं तो लगता है पर साथ ही क्या कभी किसी विरोध के दौरान जनता चैन की सांस ले सकेगी ? क्या कभी गाँधीवादी तरीके से विरोध फिर से होने लगेगा और आम लोग अपना काम आसानी से निपटाते रहेंगे ? शायद जल्दी तो नहीं फिर भी ऐसा अगर हो जाये तो कितना अच्छा हो ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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