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रविवार, 8 अगस्त 2010

कौन सी कश्मीरियत ?

कश्मीर घाटी में चल रही देश विरोधी गतिविधियों के चलते आज पूरे देश में चिंता व्यक्त की जा रही है पर बात बात पर कश्मीरियों की बात करने वाले भूल जाते हैं कि वहाँ पर कश्मीरियत जैसी कोई बात तो है ही नहीं क्योंकि दुनिया में कश्मीर की पहचान वहां के मूल निवासी कश्मीरी पंडित ही जब घाटी से भगाए जा चुके हैं तो वहां पर कौन सी कश्मीरियत बची है ? अगर इन अलगाव वादी नेताओं को कश्मीर की संस्कृति की इतनी फ़िक्र थी तो उन्होंने नब्बे के दशक में वहां के मूल निवासियों को क्यों जाने दिया ? या फिर सहयोग और सद्भाव की बातें करने वाले तब किस लालच से चुप होकर बैठे थे ?
            आज जिस तरह से कश्मीर में मस्जिदों का प्रयोग लोगों को भड़काने के लिए किया जा रहा है वह किस कश्मीरियत की निशानी है ? घाटी में वैसे ही कश्मीरी पंडित नहीं बचे हैं पर जो कुछ कहीं वापस गए भी थे उनके घरों को फिर से आग लगाने का प्रयास किया जा रहा है ? मीर वायज और गिलानी जैसे नेता चाहे जितनी बातें करें पर वे कश्मीर की कश्मीरियत के हत्यारे तो हैं ही ? अब अब्दुल्लाह परिवार को यह सब फिर से याद आ रहा है और पीडीपी हमेशा से ही कट्टपंथियों के प्रति नरमी दिखाती रही है ? आज जब कश्मीर में वास्तव में बहुत कुछ किये जाने की ज़रुरत थी तो ये नेता फिर से लोगों को अपना काम छोड़कर आम लोगों को भड़काने उकसाने में लग गए हैं, किसी भी मौत पर आक्रोश होना स्वाभाविक है पर इस तरह से जान बूझकर ऐसे हालात पैदा कर देना जिससे सुरक्षा बलों के हाथों में और खून सना दिखाई देने लगे ? यह कौन सी कश्मीरियत है जो अपने ही जवान बेटों को बिना बात मौत के मुंह में धकेलने का काम कर रही है ?
       क्या वास्तव में कश्मीर में इतनी ज्यादती हो रही है जितने बड़े स्तर पर लोगों को भड़का कर सड़कों पर सुनियोजित तरीके से उतारा जा रहा है ? समृद्ध होते कश्मीर के खिलाफ अफ़सोस है कि आज कुछ कश्मीरी नेताओं के हित ही आड़े आ रहे हैं जिस कारण से वे अपने को अलग थलग महसूस कर रहे हैं ? उनके हाथों में और कुछ तो था नहीं और वे जानते हैं कि चुनाव जीतने की उनकी औकात नहीं है तो बस किसी और तरह से ही सही लोगों को भड़का कर काम चलाने की जुगत वे कर रहे हैं भले ही इसमें कितने ही निर्दोष कश्मीरी मुस्लिम युवक मार दिए जाएँ ? उनके बयानों और फोन कॉल से पता चलता है कि वे केवल अपने हितों को ही साधना चाहते हैं उनको किसी भी कश्मीरी मुस्लिम युवक से कोई हमदर्दी नहीं है वे तो लाशों के ढेर लगाकर अपने को मज़बूत करना चाहते हैं ?इन लाशों का ढेर जितना ऊंचा होगा उसकी लपटें उतनी ही तेज़ होंगीं और उसमें उनकी सियासती रोटियां उतनी ही अच्छी सिंक सकेंगीं.
     फालतू की बातों पर फतवा जारी करने वालों को मस्जिदों के इस तरह के इस्तेमाल के बारे में क्या कुछ नहीं कहना है ? मस्जिदों से लोगों को इबादत के लिए बुलाकर भड़काने वाली बातें करके उकसाना क्या इस्लाम की भावना के अनुरूप है ? फिर हर बात पर अपनी बातें सामने लाने वाले लोग इस मसले पर आम मुसलमान के सामने सही तस्वीर क्यों नहीं प्रस्तुत करते हैं ? क्या मस्जिदों के इस तरह के इस्तेमाल को उचित कहा जा सकता है ? आखिर इस्लाम के उदारपंथी इन सब मसलों पर क्यों चुप्पी लगाकर पूरे धर्म के प्रति अन्य धर्मों के लोगों को शंकालु बनाने का काम करते हैं ? इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह भाई चारा सिखाता है पर क्या किसी ने कभी किसी कश्मीरी पंडित से यह पूछा है कि उसके लिए यह कैसा भाई चारा लेकर आया ?  


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