जैसी कि ख़बरें आ रही हैं कि तालिबान और अमेरिका कुछ मुद्दों पर आपस में गुप्त रूप से बात चीत करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अमेरिका अब इस बात को समझने की कोशिश कर रहा है कि अफ़गानिस्तान में आख़िर किस तरह से वास्तविक शांति लायी जा सकती है ? उल्लेखनीय है कि यह वही इलाका है जहाँ से रूसियों को निकालने के लिए पाक और अमेरिका ने साझा रूप में इन्हीं तालिबानों का साथ दिया था और जब इनका दुस्साहस इतना बढ़ गया कि ये सीधे अमेरिका को चुनौती देने लगे तब जाकर अमेरिका की आँखें खुलीं ? आज भी वह पाकिस्तान को नया अफ़गानिस्तान बनने की तरफ धकेल रहा है. अच्छा होता कि अमेरिका दूसरे देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने की अपनी नीति का त्याग कर देता और इन सभी देशों के हितों को सुरक्षित रखने में अपनी भूमिका निभाता न कि अपने हितों के लिए इन देशों को बलि का बकरा बनाता. पर अमेरिका जैसे देहस के लिए यह सब समझ पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि उनकी दीर्घकालिक नीतियों ने अभी तक दुनिया को बहुत सारे ज़ख्म दिए हैं.
आज अगर इस तरह की कोई बात चीत शुरू हो रही है तो उसका सभी को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए क्योंकि किसी भी स्तर पर इस तरह से विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में अशांति फैलने का असर पूरी दुनिया पर पड़ता तो ही है. संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था को अब इन बड़े पैसे देने वाले देशों की हर बात नहीं माननी चाहिए क्योंकि जब कहीं पर किसी के हितों को साधने का काम इस मंच से किया जाने लगता है तो इस मंच की सार्थकता प्रभावित होती है. इस संस्था ने जब अमेरिका के हितों का पोषण किया तो अमेरिका ने उसकी बात को मनवाने की पूरी कोशिश की और जब भी उसके अपने हित कहीं से चोट खाते दिखे तो उसने संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रस्ताव को रद्दी के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जब तक अमेरिका इस मानसिकता के साथ दुनिया का दरोगा बनने के प्रयास करता रहेगा तब तक कोई भी देश उसकी इन हरकतों का शिकार हो सकता है. जब तक संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था आर्थिक सहायता करने वाले देशों की गुलाम बनी रहेगी तब तक वहां से कुछ भी सार्थक केवल अमेरिका के लिए ही होगा.
अब अगर तालिबान के कुछ सूत्र अमेरिका पर भरोसा कर किसी भी तरह से बात चीत में शामिल हो रहे हैं तो यह पूरे मध्यपूर्व के लिए बहुत ही शुभ संकेत है. आज समय है कि तालिबान इस अवसर को अफ़गानिस्तान का भविष्य बनाए के रूप में देखें और दोनों में से कोई भी पक्ष इसे जीत या हार के रूप में प्रचारित न करे. अब समय है कि तालिबान पिछले १० वर्षों के खून खराबे को देखते हुए सार्थक और प्रभावी बात चीत करने के लिए सामने आये. जब इस तरह का कोई विचार चल रहा है तो उसे केवल इन दो देशों तक ही सीमित न रखा जाये और आने वाले समय में अन्य देशों को भी इसमें शामिल किया जाये. ज़ाहिर है कि पाक इस तरह की किसी भी बात चीत को खुले तौर पर मन से समर्थन नहीं देगा क्योंकि तब उसके पास अमेरिका को डराने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा. अब यह संयुक्त राष्ट्र और सम्बंधित पक्षों के बीच बातचीत के बाद ही तय किया जाना चाहिए कि आख़िर अफ़गानिस्तान और क्षेत्र के अन्य तालिबान के प्रभाव वाले देशों के लिए आखिर क्या किया जाये जिससे यह समस्या हमेशा के लिए ही समाप्त हो जाये.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज अगर इस तरह की कोई बात चीत शुरू हो रही है तो उसका सभी को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए क्योंकि किसी भी स्तर पर इस तरह से विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में अशांति फैलने का असर पूरी दुनिया पर पड़ता तो ही है. संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था को अब इन बड़े पैसे देने वाले देशों की हर बात नहीं माननी चाहिए क्योंकि जब कहीं पर किसी के हितों को साधने का काम इस मंच से किया जाने लगता है तो इस मंच की सार्थकता प्रभावित होती है. इस संस्था ने जब अमेरिका के हितों का पोषण किया तो अमेरिका ने उसकी बात को मनवाने की पूरी कोशिश की और जब भी उसके अपने हित कहीं से चोट खाते दिखे तो उसने संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रस्ताव को रद्दी के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जब तक अमेरिका इस मानसिकता के साथ दुनिया का दरोगा बनने के प्रयास करता रहेगा तब तक कोई भी देश उसकी इन हरकतों का शिकार हो सकता है. जब तक संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था आर्थिक सहायता करने वाले देशों की गुलाम बनी रहेगी तब तक वहां से कुछ भी सार्थक केवल अमेरिका के लिए ही होगा.
अब अगर तालिबान के कुछ सूत्र अमेरिका पर भरोसा कर किसी भी तरह से बात चीत में शामिल हो रहे हैं तो यह पूरे मध्यपूर्व के लिए बहुत ही शुभ संकेत है. आज समय है कि तालिबान इस अवसर को अफ़गानिस्तान का भविष्य बनाए के रूप में देखें और दोनों में से कोई भी पक्ष इसे जीत या हार के रूप में प्रचारित न करे. अब समय है कि तालिबान पिछले १० वर्षों के खून खराबे को देखते हुए सार्थक और प्रभावी बात चीत करने के लिए सामने आये. जब इस तरह का कोई विचार चल रहा है तो उसे केवल इन दो देशों तक ही सीमित न रखा जाये और आने वाले समय में अन्य देशों को भी इसमें शामिल किया जाये. ज़ाहिर है कि पाक इस तरह की किसी भी बात चीत को खुले तौर पर मन से समर्थन नहीं देगा क्योंकि तब उसके पास अमेरिका को डराने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा. अब यह संयुक्त राष्ट्र और सम्बंधित पक्षों के बीच बातचीत के बाद ही तय किया जाना चाहिए कि आख़िर अफ़गानिस्तान और क्षेत्र के अन्य तालिबान के प्रभाव वाले देशों के लिए आखिर क्या किया जाये जिससे यह समस्या हमेशा के लिए ही समाप्त हो जाये.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
तालिबान से बात! कदम घातक है... इसके बजाय समाज में उदार तत्वों को बढ़ावा देना चाहिये था..
जवाब देंहटाएंtaliban ke bare men jitni bhramak khabaren american media deta hai uske vishleshan ki aawashykta hai.
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