२००८ विश्वास मत के दौरान सांसदों को दी गयी कथित घूस के बारे में संसद में जिस तरह से बहस चल रही है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं से आज असली मुद्दा पीछे छूट गया है और कहीं से फिर से देश को अस्थिर करने वाली ताकतें परदे के पीछे फिर से सक्रिय हो गयी हैं ? इस मसले पर विपक्ष जिस तरह से विकिलीक्स के केबेल्स को अधिक विश्वसनीय मान रहा है और उसे मनमोहन के बयान पर भरोसा नहीं है वह ठीक उसी तरह की बातों को दोहराता लग रहा है जब इसी तरह के खुलासे के बाद बोफोर्स ने पूरे भारत को परेशान कर रखा था ? उस समय कम अनुभवी पर बड़ी राजनैतिक विरासत वाले राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे पर अब उनकी जगह पर बहुत अनुभवी पर बिना राजनैतिक विरासत वाले मनमोहन सिंह देश को चला रहे हैं. दोनों स्थितयों में बड़ा फ़र्क है और सभी को इसे समझना ही पड़ेगा.
यह सही है कि देश में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सभी को आगे आना चाहिए पर जिस मुद्दे पर पिछली लोकसभा में विपक्ष की मांग के अनुसार सब कुछ किया जा चुका हो और कहीं से भी किसी को भी घूस देने के कोई सबूत नहीं मिले हो आज फिर से उसी को लेकर हाय तौबा मचाने का क्या औचित्य बनता है ? इसका मतलब यह भी नहीं है कि किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की दोबारा जांच ही न की जाये ? हर मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए ही कुछ किया जाना चाहिए फिर चाहे कोई भी उससे क्यों न जुड़ा हुआ हो ? अगर विपक्ष के पास कोई ठोस सबूत हैं तो उन्हें सदन के पटल पर भी रखना चाहिए जिससे सरकार पूरी तरह से बेनकाब हो सके और जनता को भी सही बात पता चल सके पर अगर केवल किसी भी केबल के चलते यह सब किया जा रहा है तो किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है ? विदेशों के इस तरह के दस्तावेज़ कोर्ट में कुछ भी साबित करने में कहाँ तक टिक पायेंगें यह नहीं कहा जा सकता है पर देश की जनता का जो पैसा संसद को चलाने के लिए लगना चाहिए वह केवल हल्ला मचाने और धरना देने में ही खर्च हो जाता है ?
मनमोहन सिंह वैसे तो कड़ा बोलते ही नहीं पर कल जिस तरह से सदन में उन्होंने आडवानी पर सीधा हमला बोला वह अप्रत्याशित था. मनमोहन ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि आडवानी २००४ में प्रधानमंत्री बनना चाहते थे पर उनके पद पर आ जाने से आडवानी ने उन्हें अभी तक माफ़ नहीं किया है. मनमोहन यहीं पर नहीं रुके और उन्होंने आडवानी को यह सलाह तक दे डाली कि उन्हें इस पद को पाने के लिए साढ़े तीन साल और प्रतीक्षा भी करनी चाहिए. जिस तरह से विपक्ष अपनी जिद के आगे रोज़ ही संसद को बंधक बनाने में लगा हुआ है तो उस स्थिति में मनमोहन या सरकार से और क्या आशा की जा सकती है ? क्या सदन चलाने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार की है ? लोकतंत्र ने यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों को सौंपी है और इनमें से कोई भी इससे दूर जाने की सोच भी नहीं सकता है पर देश में अपने हितों के लिए हम किसी दूसरे की परवाह करना सीख ही नहीं पाए हैं और आज भी हम उसी पर लगे हुए हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
संसद में होता क्या है..
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