मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

दलित उद्योगपति और आरक्षण

           देश में जिस तरह से केवल राजनीति के लिए हर काम किया जाने लगा है उसमें देश के प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा के एक बयान में इस बात को समझने की कोशिश है कि बिना शोर शराब किये हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है. देश के दलितों के उद्योग संघ डिक्की के अधिवेशन में बोलते हुए हुए रतन टाटा ने यह कहा कि देश के प्रमुख औद्योगिक घरानों को देश के दलित उद्योगपतियों से प्राथमिकता के आधार पर कच्चा माल खरीदना चाहिए जिससे इन्हें काम करने में आसानी हो और देश के पिछड़े वर्गों से आने वाले उद्योगपतियों के लिए भी आसानी हो जाएगी. वैसे इस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने सरकार से यह भी आह्वाहन किया कि इस सम्बन्ध में कुछ ऐसे नियम भी बना दिए जाएँ जिससे आने वाले समय में इन उद्योगपतियों के लिए कुछ आसानी हो जाये और गुणवत्ता वाला सामान इन्हीं के उद्योगों से पूरे उद्योग जगत को मिल सके. इस मामले में टाटा समूह के साथ फोर्ब्स मार्शल और गोदरेज समूह ने भी अपने स्तर से ही इन उद्योगपतियों से कच्चा माल खरीदने की पहल शुरू कर दी है जो कि सराहनीय है. इन उद्योगपतियों से देश के राजनीतिज्ञों को सीख लेनी चाहिए कि कुछ काम बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से भी बिना हो हल्ले के भी हो सकते हैं.
          देश में प्रगतिशील दलितों को पूरे अवसर प्रदान किये जाएँ इसमें किसी को भी आपत्ति नहीं है पर जिस तरह से इनको कमज़ोर साबित करने की कोशिश की जाती है वह देश के सभ्य समाज और विकास के लिए घातक है. यह देश दलितों का भी उतना ही है जितना अन्य लोगों का पर देश में हर बात को दलितों के कथित चश्में से देखने से काम आसान नहीं होने वाला है. यहाँ पर विचार करने वाली बात यह है कि आख़िर क्यों कड़ी मेहनत करने के बाद भी इन दलित उद्योगपतियों को इस बात का श्रेय नहीं दिया जाता कि उन्होंने बिना किसी आरक्षण की बैसाखी के इतनी प्रगति की है ? देश के दलितों को आख़िर इस बात का एहसास कब तक कराया जाता रहेगा कि वे दलित हैं जब वे अपनी मेहनत से पूरे देश को यह दिखा सकते हैं कि वे भी किसी से कम नहीं हैं तो उन्हें इस बात की बार बार याद दिलाने से क्या होने वाला है ? आज इस बात की आवश्यकता है कि जिन दलितों ने अपनी मेहनत से अपनी कोई जगह बनाई है उन्हें दलित होने का एहसास दिलाये बिना ही आगे बढ़ने से क्यों रोका जाना चाहिए. 
        यहाँ पर यह भी महत्वपूर्ण है कि इन दलितों ने अपने प्रयासों से यह स्थान पाया है आज अगर किसी को इनकी मदद करनी है तो टाटा की तरह ही करनी चाहिए जिससे इन्हें इस बात का गर्व हो कि वे दुनिया के बहुत बड़े समूह के साथ मिलकर काम कर रहे हैं और साथ ही उन्हें इस बात की प्रेरणा भी मिलती रहे कि उन्हें अब गुणवत्ता के मामले में वो कर दिखाना है जिसके लिए टाटा जैसा समूह जाना और पहचाना जाता है. इस बात की कोई आवश्यकता नहीं है उन्हें बजाय गुणवत्ता के इस बात का सहारा दिया जाये कि वे दलित हैं और आने वाले समय में उनके लिए व्यापार जगत में चल रही प्रतिस्पर्धा के स्थान पर आरक्षण की बैसाखी के सहारे खड़ा करने की फ़र्ज़ी कोशिशें की जाएँ ? अब समय है कि इन लोगों को यह समझाया जाये कि केवल आरक्षण की बैसाखी थोड़ी दूर तक तो ले जा सकती है पर लम्बी दूर तक दौड़ में शामिल रहने के लिए इनकी अपनी मेहनत ही काम आने वाली है. जो बढ़कर देश के लिए अपना योगदान दे रहे हैं उन्हें अनावश्यक सहारे के स्थान पर कड़ी प्रतिस्पर्धा में जीने की आदत डालनी चाहिए जिससे वे आने वाले समय में खुद ही सब कुछ कर सकें और बात बात के लिए उन्हें आरक्षण का आसरा न ढूँढा पड़े.      
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