मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

निरंकुश अधिकारी

       उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय से देश के दो बड़े प्रशासनिक संवर्गों में जिस तरह की खटास देखी जा रही है उससे यही लगता है कि प्रदेश में अब सब कुछ मनमाने तरीके से ही हो रहा है. पूरे देश में आईएएस और आईपीएस संवर्ग में कुछ मुद्दों पर टकराव की स्थिति हमेशा ही बनी रहती है पर इस मामले में अधिक शक्तिशाली होने के कारण आईएएस संवर्ग अपने को आगे साबित करता रहा है. ताज़े चुनावी माहौल में प्रदेश में जिस तरह से १२ जिलों में तैनात पुलिस प्रमुखों ने अपनी समिति को त्यागपत्र भेजे उनसे यही लगता है कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा अवश्य किया जा रहा है जिसे सामान्य रूप से ये पुलिस अधिकारी नहीं पचा पा रहे हैं ? अगर चुनाव का समय न होता तो इन सभी को निलंबित कर दिया गया होता पर आयोग की चाबुक के दर से पंचम तल के बड़े अधिकारी और नेता भी चुप ही हैं. यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि इन दोनों संवर्गों में मतभेद क्यों है पर बड़ा सवाल यह है कि आख़िर वे कौन सी बातें थीं जिन पर जिले के आला पुलिस अधिकारी को इस तरह से बेईज्ज़त किया गया ? क्या किसी बड़े अधिकारी को यह हक संविधान से मिला है कि वह समीक्षा बैठक में किसी को कुछ भी कह दे ? नहीं अपर यह इस सरकार की विशेषता है जो ५ वर्षों में अधिकारियों के दिमाग़ पर भी हावी हो गयी है.
    ऐसा नहीं है कि यह विवाद कुछ नया है पर बसपा सरकार ने डॉ अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनाये भारतीय संविधान की बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं रखी जब उसने एक गैर संवर्ग के व्यक्ति को प्रदेश के आईएएस अधिकारियों से भी ऊपर कैबिनेट सचिव के रूप में बैठा दिया ? क्या ऐसे किसी को बी ही इतने बड़े पद पर बैठाया जा सकता है ? संविधान के अनुसार तो नहीं पर संविधान बनाने की समिति की अगुवाई करने वाले के तथाकथित अनुयायी आज यही कर रहे हैं ? अगर यह काम किसी और दल ने किया होता तो तुरंत ही यह कहा जाता कि सब दलित विरोधी हैं सिर्फ इसलिए संविधान से खिलवाड़ कर रहे हैं. आज यह संवर्ग केवल अपने साथ काम करने वाले आईपीएस संवर्ग को नीचा दिखने में ही लगा हुआ है पर जब उनके सर पर शशांक शेखर को बैठाया गया था तब से आज तक उनकी बोलती बंद है प्रदेश में वे चाहे जिस तरह से अन्य संवर्गों के लोगों को परेशान करते रहें पर देश के अन्य राज्यों के अपने समकक्ष अधिकारियों के सामने उनकी नज़रें इस बात के लिए शर्म से झुकी ही रहती हैं कि आख़िर वे कैसे इस तरह की असंवैधानिक व्यवस्था में अपना काम कर रहे हैं ? दूसरों को आईना दिखाने वाले इस बलशाली संवर्ग के पास इस बात को कोई उत्तर नहीं होता है कि आख़िर कोई भी व्यक्ति उनसे ऊपर कैसे हो सकता है और वह भी उन जब उसके पास इस तरह की कोई योग्यता भी न हो ?
     प्रदेश में पूरे पांच साल तक जिस तरह से नौकरशाही पूरी तरह से चंद हाथों में गिरवी रही उसकी आज़ाद भारत में कोई सानी नहीं मिल सकती फिर भी इन अधिकारियों के किये कुछ नहीं हुआ कि वे अपने संवर्ग से जुड़े फोरम में इस बात को दमदार तरीके से उठा पाते ? एक ज़माने के तेज़ तर्रार अधिकारी विजय शंकर पाण्डेय भी इस अत्याचार पर चुप ही रहे वर्ना इस तरह की विसंगतियों पर उनके द्वारा हमेशा से ही सवाल उठाये जाते रहे हैं ? प्रदेश में प्रशासनिक अमले का किस तरह से राजनैतिकीकरण किया गया उसका खामियाज़ा इस संवर्ग के अधिकारियों और प्रदेश को भुगतना ही पड़ेगा क्योंकि चाहे कोई भी नेता या अधिकारी हो व संविधान से आगे नहीं हो सकता है और आने वाले समय में नए चुनाव के बाद किस तरह की परिस्थितयां बनेंगीं इसका अंदाज़ा सभी संवर्गों को लग चुका है इसलिए वे अभी से ही अपने सूत्रों से नए समीकरणों में अपनी मजबूरी का रोना रोने लगे हैं. हो सकता है कि आने वाले समय में कुछ अच्छा हो पर किसी भी नेता की इस  तरह की मनमानी पर रोक लगाने की कोशिश पर कुछ अंकुश तो होना ही चाहिए वर्ना कुछ समय बाद नेताओं के चहेते ही आधिकारिक तौर फैसले लेते रहेंगें और नए नए प्रशासनिक विवादों को जन्म देते रहेंगें. देश की कानूनी वयवस्था में ऐसा करने वाले समय लेने में सफल हो जाते हैं और फ़ैसला आने तक वे अपना काम करते रहते हैं.  
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