उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावों में जिस तरह से दोनों चरणों के मतदान की ख़बर लिखते समय अख़बारों ने मुस्लिम शब्द पर जोर दिया है क्या उसकी वास्तव में आज की स्थितियों में आवश्यकता है ? शायद नहीं पर लिखने वाले पता नहीं किस तरह से क्या कहना चाहते हैं कि दोनों चरणों के मतदान के बाद कम से कम सभी अख़बारों ने ख़बरों के साथ चित्र लगाने में मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों को ही चुना ? इसमें कोई ग़लत बात नहीं है अगर देश की मुख्य धारा में शामिल मुसलमानों के वोटिंग करने के उत्साह को बढ़ चढ़ कर दिखाया जाये पर इस बात को हर बार लिखना क्या आवश्यक है ? जिस तरह से मुस्लिम मतों को लेकर राजनैतिक दलों में खींचतान मची हुई है उस स्थिति में क्या अख़बारों का इस तरह से लिखना ठीक है ? जब देश के संविधान ने सभी को एक सामान माना है तो फिर इस तरह से लिखना किस तरह से सही कहा जा सकता है और यह भी समझ से परे है कि यह विशेष ख़बर कैसे है जबकि समाज के सभी अंग एक सामान रूप से मतदान में भाग ले रहे हैं ? हाँ अगर किसी ऐसे समूह ने पहली बार मतदान किया है जो अभी तक इस बारे में सोच भी नहीं सकता था तो यह एक बड़ी ख़बर बन सकती है.
समाचार पत्रों में इस तरह की ख़बरें लगने से क्या इस तरह का सन्देश नहीं जा सकता है कि इस बार मुसलमान कुछ आगे बढ़कर वोट कर रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समाज ने हमेशा से ही अपने इस अधिकार का बड़ी संख्या में उपयोग किया है फिर आख़िर समाचार लिखने के किस मानक पर यह बात कुछ अलग सी मानी जा सकती है कि मुस्लिम महिलाओं ने लाइन में लगकर वोट डाला ? यह ठीक है कि संपादक का यह विशेषाधिकार होता है कि वह किस पेज पर किस तरह की ख़बर को प्राथमिकता दे और किस फोटो को कहाँ पर छपवाए पर जिस तरह से इस मामले को लिया जा रहा है उससे यही लग सकता है कि इससे पहले शायद मुस्लिम मतदाता वोट डालने ही नहीं जाते थे ? बड़ी ख़बरें वे हो सकती थीं कि किन स्थानों पर मतदाताओं ने चुनाव का किन कारणों से बहिष्कार किया और उनकी समस्याएं किस हद तक हैं ? क्या कारण है कि आज भी संपादन से जुड़े हुए लोग इस बात को लिखना और दिखाना चाहते हैं कि मुस्लिम चुनाव के लिए आगे आये हुए हैं ?
इस बात का सबूत पिछले चुनावों के रिकॉर्ड से भी देखा जा सकता है कि किस तरह से मुस्लिम हमेशा से ही अच्छी संख्या में अपने इस अधिकार का प्रयोग करते रहे हैं फिर केवल इस बात को ही प्रदर्शित करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है ? जब मुसलमानों ने काफी दिनों बाद पोलिओ ड्रॉप पिलाना शुरू किया तो वह एक बड़ी ख़बर थी और फोटो समेत पहले पन्ने की हक़दार थी पर मुस्लिम मतदान को इस तरह से रेखांकित करना क्या प्रदर्शित करता है ? अगर अख़बारों को लगता है कि इस तरह की फोटो उनकी बिक्री अपर असर डाल सकती है तो वे इन्हें छापने के लिए स्वतंत्र हैं पर क्या बुर्का पहने महिलाओं की फोटो के नीचे मुस्लिम महिला लिखा जाना आवश्यक है ? देश में सभी यह जानते हैं कि मुस्लिम महिलाएं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बुर्का पहनती हैं तो क्या समाचार पत्र यह समझते हैं कि पाठकों को यह भी नहीं पता कि ये मुस्लिम महिलाएं हैं ? फोटो चाहे कोई भी लगायी जाये पर इस तरह से लिखा जाना क्या निष्पक्ष और मतदान करवाने की आयोग की मंशा के अनुरूप है ? शायद नहीं पर लिखने और छापने वालों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उन पर इस तरह से किसी की नज़र भी नहीं जाती है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
समाचार पत्रों में इस तरह की ख़बरें लगने से क्या इस तरह का सन्देश नहीं जा सकता है कि इस बार मुसलमान कुछ आगे बढ़कर वोट कर रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समाज ने हमेशा से ही अपने इस अधिकार का बड़ी संख्या में उपयोग किया है फिर आख़िर समाचार लिखने के किस मानक पर यह बात कुछ अलग सी मानी जा सकती है कि मुस्लिम महिलाओं ने लाइन में लगकर वोट डाला ? यह ठीक है कि संपादक का यह विशेषाधिकार होता है कि वह किस पेज पर किस तरह की ख़बर को प्राथमिकता दे और किस फोटो को कहाँ पर छपवाए पर जिस तरह से इस मामले को लिया जा रहा है उससे यही लग सकता है कि इससे पहले शायद मुस्लिम मतदाता वोट डालने ही नहीं जाते थे ? बड़ी ख़बरें वे हो सकती थीं कि किन स्थानों पर मतदाताओं ने चुनाव का किन कारणों से बहिष्कार किया और उनकी समस्याएं किस हद तक हैं ? क्या कारण है कि आज भी संपादन से जुड़े हुए लोग इस बात को लिखना और दिखाना चाहते हैं कि मुस्लिम चुनाव के लिए आगे आये हुए हैं ?
इस बात का सबूत पिछले चुनावों के रिकॉर्ड से भी देखा जा सकता है कि किस तरह से मुस्लिम हमेशा से ही अच्छी संख्या में अपने इस अधिकार का प्रयोग करते रहे हैं फिर केवल इस बात को ही प्रदर्शित करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है ? जब मुसलमानों ने काफी दिनों बाद पोलिओ ड्रॉप पिलाना शुरू किया तो वह एक बड़ी ख़बर थी और फोटो समेत पहले पन्ने की हक़दार थी पर मुस्लिम मतदान को इस तरह से रेखांकित करना क्या प्रदर्शित करता है ? अगर अख़बारों को लगता है कि इस तरह की फोटो उनकी बिक्री अपर असर डाल सकती है तो वे इन्हें छापने के लिए स्वतंत्र हैं पर क्या बुर्का पहने महिलाओं की फोटो के नीचे मुस्लिम महिला लिखा जाना आवश्यक है ? देश में सभी यह जानते हैं कि मुस्लिम महिलाएं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बुर्का पहनती हैं तो क्या समाचार पत्र यह समझते हैं कि पाठकों को यह भी नहीं पता कि ये मुस्लिम महिलाएं हैं ? फोटो चाहे कोई भी लगायी जाये पर इस तरह से लिखा जाना क्या निष्पक्ष और मतदान करवाने की आयोग की मंशा के अनुरूप है ? शायद नहीं पर लिखने और छापने वालों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उन पर इस तरह से किसी की नज़र भी नहीं जाती है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
जब चुनाव में धर्मनिरपेक्ष पार्टियां ही मुस्लिम वोटरों को रिझाने को लेकर लड़ा जा रहा हो तो अखबारों की ही शिकायत क्यों.
जवाब देंहटाएंVote politics... Sampradayik Rang...
जवाब देंहटाएंPata nahi, lekin maine jo dekha hai, uske hisaab se to muslim vote bahut kam daalte hain...
बहुत बेहतरीन ...हमारे ब्लोग पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंI like the valuable info you provide on your articles. I’ll bookmark your weblog and take a look at once more right here frequently. I am relatively sure I will be told plenty of new stuff proper right here! Best of luck for the following!love sms
जवाब देंहटाएं