जिस तरह से ईरान और पश्चिमी देशों देशों के संबंधों में तेज़ी से बिगाड़ होता जा रहा है उससे यही लगता है कि अगर समय रहते इस मसले पर कुछ नहीं किया गया तो आने वाले समय में खाड़ी में एक बार फिर से अशांति पैदा हो सकती है. इस मसले में ईरान ने जिस तरह से यूरेनियम के २० % संवर्धन की बात सरकारी टीवी पर मानी है उससे यही लगता है कि वह अब अपने परमाणु कार्यक्रम को छिपाना भी नहीं चाहता है. पश्चिमी देशों की केवल तेल पर प्रभाव जमाने की कोशिश के चलते ही जिस तरह से अरब जगत और मध्यपूर्व में लगातार अशांति बनी रहती है उसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है. इस्लामी देशों को यह लगता है कि अमेरिका एक षड़यंत्र के तहत उनके देशों में गड़बड़ी फैलाना चाहता है जबकि इन्हीं देशों में तानाशाह या राजा लोग अपने स्वार्थों के कारण पश्चिमी देशों को लगातार अपने यहाँ काम करने की अनुमति देते रहते हैं जिसके कारण ही जनता के अधिकारों का हनन होने के साथ उसमें इस बात के लिए असंतोष बढ़ता जाता है और कोई चरमपंथी संगठन उन्हें अपने अनुसार ढालने में सफल हो जाता है. आज के वैश्विक परिदृश्य में किसी भी देश के लिए इस तरह से गैर ज़िम्मेदार रवैया अपनाने का कोई कारण नज़र नहीं आता है.
आज की ऊर्जा ज़रूरतों के चलते सभी देशों को इस बात की पूरी आज़ादी है कि वे अपने भविष्य के बारे में आज ही नीतियां बनायें और उनको पूरा करने के लिए किसी भी तरह से प्रयास करें पर आज के बढ़ते आतंक के परिदृश्य में परमाणु शक्ति संपन्न देशों को यह लगता है कि अब अगर किसी भी देश के पास परमाणु शक्ति आती है तो वे उसका दुरूपयोग पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ ही करने वाले हैं जो कि नितांत उनके विचार हैं. क्या किसी देश के पास यह उत्तर है कि आने वाले समय में आख़िर किस तरह से विश्व की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा किया जायेगा ? इस सम्बन्ध में इस तरह के विवादों को पीछे छोड़कर कुछ प्रयास साथ में किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि अब कोई एक देश आने वाले समय में इस चुनौती का सामना अकेला नहीं कर पायेगा. जहाँ तक ईरान के परमाणु हथियार बनाए जाने को इस्लामी परमाणु बम का नाम क्यों दिया जाता है उसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है और जिस तरह से ईरान और पश्चिमी देश अपने अपने रुख पर अड़े रहते हैं उससे इस समस्या का समाधान नहीं निकल सकता है. पाक और ईरान के परमाणु कार्यक्रम में सबसे बड़ा अंतर यही है कि पाक के बम से पश्चिम को कोई खतरा नहीं है और ईरान का बम सीधे इस्राइल को अपनी ज़द में ले सकता है जो कि युद्ध की तरफ जाने वाला कदम होगा.
आज के समय में यह सवाल भी बहुत बड़ा है कि इस स्थिति में भारत का रुख़ क्या होना चाहिए क्योंकि भारत ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल आयात करता है और उसका बड़ा व्यापारिक साझीदार है. इस्राइल के राजनयिकों पर जिस तरह से दिल्ली में भी हमला किया गया उससे भारत सरकार पर भी दबाव बना है हालांकि अभी तक ईरान के शामिल होने की कोई बात सामने नहीं आई है फिर भी शक़ की सुई उसकी तरफ ही घूमती है. जिस तरह से अल कायदा ने अपने पाँव पूरे विश्व में पसारे हैं और अगर वह किसी भी तरह से ईरान की अपरोक्ष मदद कर रहा है तो अब ईरान की ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी मध्यपूर्व की लड़ाइयाँ और पूर्वाग्रह वहीं पर निपटाए क्योंकि भारत ने उसके ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं किया है और हमेशा से ही भारत ने पश्चिमी देशों के दबाव के बाद भी ईरान से अपने रिश्तों को मजबूती से बनाये रखा है पर इस तरह की घटनाएँ ईरान के बारे में भारत के आम नागरिकों के बारे में संदेह उत्पन्न करती हैं क्योंकि तब यह सवाल भी उठ सकता है कि ५ हज़ार वर्षों के संबंधों का ईरान इसी तरह से क्यों जवाब दे रहा है और उस समय कुछ लोग इसे केवल इस्लामी हमले के रूप में दिखाना चाहेंगें ? इस घटना के बाद अगर ईरान के कोई भी तत्व शामिल हों तो ईरान के चेतने का समय है वरना भारत जैसा एक स्थायी और समझदार भागीदार भी उसके साथ उस मजबूती से नहीं खड़ा रह पायेगा. क्या अब ये सम्बन्ध बनाये रखने की ज़िम्मेदारी केवल भारत की ही है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज की ऊर्जा ज़रूरतों के चलते सभी देशों को इस बात की पूरी आज़ादी है कि वे अपने भविष्य के बारे में आज ही नीतियां बनायें और उनको पूरा करने के लिए किसी भी तरह से प्रयास करें पर आज के बढ़ते आतंक के परिदृश्य में परमाणु शक्ति संपन्न देशों को यह लगता है कि अब अगर किसी भी देश के पास परमाणु शक्ति आती है तो वे उसका दुरूपयोग पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ ही करने वाले हैं जो कि नितांत उनके विचार हैं. क्या किसी देश के पास यह उत्तर है कि आने वाले समय में आख़िर किस तरह से विश्व की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा किया जायेगा ? इस सम्बन्ध में इस तरह के विवादों को पीछे छोड़कर कुछ प्रयास साथ में किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि अब कोई एक देश आने वाले समय में इस चुनौती का सामना अकेला नहीं कर पायेगा. जहाँ तक ईरान के परमाणु हथियार बनाए जाने को इस्लामी परमाणु बम का नाम क्यों दिया जाता है उसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है और जिस तरह से ईरान और पश्चिमी देश अपने अपने रुख पर अड़े रहते हैं उससे इस समस्या का समाधान नहीं निकल सकता है. पाक और ईरान के परमाणु कार्यक्रम में सबसे बड़ा अंतर यही है कि पाक के बम से पश्चिम को कोई खतरा नहीं है और ईरान का बम सीधे इस्राइल को अपनी ज़द में ले सकता है जो कि युद्ध की तरफ जाने वाला कदम होगा.
आज के समय में यह सवाल भी बहुत बड़ा है कि इस स्थिति में भारत का रुख़ क्या होना चाहिए क्योंकि भारत ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल आयात करता है और उसका बड़ा व्यापारिक साझीदार है. इस्राइल के राजनयिकों पर जिस तरह से दिल्ली में भी हमला किया गया उससे भारत सरकार पर भी दबाव बना है हालांकि अभी तक ईरान के शामिल होने की कोई बात सामने नहीं आई है फिर भी शक़ की सुई उसकी तरफ ही घूमती है. जिस तरह से अल कायदा ने अपने पाँव पूरे विश्व में पसारे हैं और अगर वह किसी भी तरह से ईरान की अपरोक्ष मदद कर रहा है तो अब ईरान की ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी मध्यपूर्व की लड़ाइयाँ और पूर्वाग्रह वहीं पर निपटाए क्योंकि भारत ने उसके ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं किया है और हमेशा से ही भारत ने पश्चिमी देशों के दबाव के बाद भी ईरान से अपने रिश्तों को मजबूती से बनाये रखा है पर इस तरह की घटनाएँ ईरान के बारे में भारत के आम नागरिकों के बारे में संदेह उत्पन्न करती हैं क्योंकि तब यह सवाल भी उठ सकता है कि ५ हज़ार वर्षों के संबंधों का ईरान इसी तरह से क्यों जवाब दे रहा है और उस समय कुछ लोग इसे केवल इस्लामी हमले के रूप में दिखाना चाहेंगें ? इस घटना के बाद अगर ईरान के कोई भी तत्व शामिल हों तो ईरान के चेतने का समय है वरना भारत जैसा एक स्थायी और समझदार भागीदार भी उसके साथ उस मजबूती से नहीं खड़ा रह पायेगा. क्या अब ये सम्बन्ध बनाये रखने की ज़िम्मेदारी केवल भारत की ही है ?
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