मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

अफज़ल पर राजनीति

        संसद पर हमले में मृत्युदंड पाए आतंकी अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने की वक़ालत करते हुए केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्लाह ने जम्मू में जिस तरह से बयान दिया वह एक तरह से कश्मीर के किसी भी नेता द्वारा दिया गया इस तरह का पहला बयान है. सवाल यह नहीं है कि अफज़ल को फाँसी कैसे और कब दी जाये बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि आख़िर अब कश्मीर के नेताओं को भी यह लगने लगा है कि देश के अन्दर देश विरोधी इस तरह की आतंकी गतिविधि में शामिल होने वाले किसी भी व्यक्ति से भी उसी तरह के कानूनों से निपटा जाना चाहिए भले ही वह कश्मीर से ही क्यों न हो ? अगर फ़ारूक़ को यह लगता है कश्मीरी भी भारतीय हैं तो इसमें क्या नयी बात है क्योंकि वे तो हमेशा से ही भारतीय हैं. वैसे देखा जाये तो इस तरह के बयान देने में कश्मीरी नेता हमेशा से ही परहेज़ किया करते हैं क्योंकि इससे उनके राजनैतिक भविष्य के खतरे में पड़ने का ख़तरा रहता है ? ऐसा नहीं है कि किसी दुर्भावना के तहत अफज़ल को फाँसी की सजा मिली हुई है यह सिद्ध हो चुका है कि वह संसद पर हमले में मुख्य रूप से शामिल था भारत में एक परिपक्व लोकतंत्र और सुलझा हुआ कानून है जिसके तहत फाँसी की सजा पाए हुए लोगों को भी राष्ट्रपति के सामने दया याचिका देने की छूट होती है. इस पूरी प्रक्रिया के पूरा होने में काफ़ी समय लगता है जिससे कई बार न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता है पर देश में कोई राजशाही या तानाशाही तो है नहीं कि जिसे भी चाहो उसे चाहे जब फाँसी पर लटका दिया जाये.
      इस पूरे मसले में देश के राजनैतिक दल हमेशा से ही राजनीति करते रहे हैं जबकि इस प्रक्रिया का सभी को पता है अगर सभी दलों को यह लगता है कि अफज़ल की याचिका पर प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई की जाये तो सभी को राष्ट्रपति से इस बारे में निवेदन करना चाहिए था पर केवल अख़बारों में बयान देना और वास्तव में कुछ करना ये दोनों बातें बहुत अलग अलग हैं ? देश के नेता केवल अपने लाभ के किये ही इस तरह की बातें किया करते हैं. आज कश्मीर में अगर शांति है तो उसके लिए सुरक्षाबलों के साथ वहां की जनता के प्रयास भी हैं क्योंकि जिस तरह से नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ को रोकने के बाद घाटी का माहौल बदला उसमें जनता ने भी चैन की साँस ली और वहां पर व्यापारिक गतिविधियों में तेज़ी आई. पर्यटकों की बढ़ती संख्या से वहां की आर्थिक स्थिति में भी तेज़ी से सुधार के लक्षण दिखाई देने लगे हैं ऐसे में कानून को अपना काम करने देना चाहिए क्योंकि बेकार के बयानों से केवल सनसनी ही फैलाई जा सकती है और आतंकी तत्व इस बात का हवाला देकर फिर से आम लोगों की भावनाओं को भड़का सकते हैं. देश के कानून में कोई कमी नहीं है पर जिस तरह से पूरे कानूनी तंत्र पर काम का भार है उससे भी कई बार ऐसा हो जाया करता है. भारत एक ज़िम्मेदार देश है और इसके लिए ऐसा करना संभव नहीं है कि किसी को भी तुरंत फाँसी पर लटका दे.
      इस तरह के मसले पर देश किस तरह से बंटा हुआ है उसे देखकर बहुत अफ़सोस होता है. कहा जाता है कि शिक्षा से सोच बदल जाती है पर ऐसे किसी भी मसले पर अगर कहीं पर पूरी छूट के साथ अपनी राय देने की बात कही जाये तो शायद वह पृष्ठ आम लोगों के पढ़ने लायक भी नहीं रह जायेंगें क्योंकि कश्मीर, मुसलमान और गुजरात जैसे शब्दों के सामने आते ही जिस तरह से कुछ तत्व सक्रिय हो जाते हैं वह उनकी सारी पढ़ाई पर कालिख़ पोत देती है. क्या पढ़े लिखे होने का मतलब वैचारिक आतंक हो सकता है ? किसी को भी अपनी बात कहने की पूरी छूट है पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में क्या नीचता पर उतर जाना उचित है ? जो कमज़ोर होता है या जिसका पक्ष कमज़ोर होता है वही अपनी बात को किसी भी तरह से ऊपर रखने के लिए इस तरह से बोल और लिख सकता है. समाज में हर जगह कुछ न कुछ ग़लत होता रहता है और यह सब प्राचीन काल से चला आ रहा है पर कुछ लोगों को गड़े मुर्दे उखाड़ने में ही अच्छा लगता है ? कश्मीर की समझ में आ चुका है कि पाक उसका हितैषी नहीं है वह उसके माध्यम से भारत पर दबाव बनाने के एक दांव से अधिक कुछ भी नहीं समझता है. अगर पाक इस्लाम और मुसलमान का इतना बड़ा हितैषी होता तो कश्मीर में आराम से रह रहे लोगों को उसने बंदूकों के साये में क्यों धकेलता ? ये सब ऐसे पहलू हैं जो सूरज और चाँद की तरह अटल सत्य हैं अब कोई माने या न माने इससे सच्चाई पर कोई अंतर नहीं पड़ता है. पाक अधिकृत कश्मीर में जनजीवन कैसा है यह उन्हें ही पता है जो वहां के अपने रिश्तेदारों से मिलकर वापस आये है उन्हें भारत में कश्मीर दुनिया में सबसे सुन्दर लगने लगता है. अच्छा हो कि इस मसले पर कानून को अपना काम करने दिया जाये और आतंकियों को धर्म की दीवारों के पीछे छिपने के अवसर न दिए जाएँ.        
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