५ राज्यों में शांतिपूर्वक चुनाव निपट जाने के बाद आयोग ने आदर्श आचार संहिता में किसी भी तरह के बदलाव के बारे में यह कहा है कि यह कानून अपने आप में पूरी तरह से सक्षम है बस इसमें कुछ सुधारों की आवश्यकता है जिसे अविलम्ब किये जाने के बारे में सोचा जाना चाहिए. चुनाव के दौरान ही जिस तरह से कुछ लोगों ने आचार संहिता को वैधानिक संरक्षण देने की बातें करनी शुरू कर दी थीं उनकी इस देश को आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि इस तरह से इस पूरी प्रक्रिया के कानूनी दांव पेंचों में फंसने की आशंका रहेगी और चुनाव आयोग का जो प्रभाव इस दौरान देखा जाता है उसके कम होने की सम्भावना हो जाएगी क्योंकि देश की अदालतों के पास पहले से ही बहुत बोझ है जिसके अनुरूप आज भी न्यायालयों और न्यायाधीशों की व्यवस्था करने में देश सफल नहीं हो सका है. देश को रोज़ ही नए कानूनों की आवश्यकता नहीं बल्कि जो कानून हैं उनमें आज के समय के हिसाब से सुधार किये जाने की ज़रुरत है. कानून होने और उनके सही तरह से अनुपालन में बहुत बड़ा अंतर होता है जिस तरह से कुछ नए कानूनों की बातें की जा रही है उससे आयोग के हाथ कहीं न कहीं पर इन नेताओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाने में बंध से जायेंगें जिसका सीधा असर सत्ताधारी दल की गतिविधियों पर ही पड़ेगा क्योंकि वह ही सरकारी तंत्र के सबसे अधिक दुरूपयोग करने की स्थिति में होता है.
आज चुनाव के समय आयोग की सख्ती के कारण ही सभी दल बिलकुल निर्भीक होकर अपने प्रचार प्रसार को चला सकते हैं और जिस तरह से भारत में आसानी से सत्ता परिवर्तन हो जाता है वह अन्य जगहों पर संभव नहीं हो पाता है. आज देश में आचार संहिता से जुड़े किसी भी मसले में कम से कम २० हज़ार रु० का आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए और इसे उम्मीदवार के खाते में जोड़ दिया जाना चाहिए यदि उसी व्यक्ति द्वारा दोबारा इस तरह की बातें की जाएँ तो इसे एकदम से बढ़ाकर १ लाख रु० किया जाना चाहिए. साथ ही आयोग के पास इस बात के अधिकार भी होने चाहिए कि ऐसे किसी भी विवादित व्यक्ति के चुनाव में प्रचार करने या उसके चुनाव लड़ने पर ही रोक भी लगा सके. केवल अर्थ दंड से ही सारी बातें नहीं बनने वाली हैं क्योंकि नेता लोग कहीं न कहीं से इसकी कोई काट ढूंढ कर निकाल लेंगें और आयोग की मंशा पर पानी फेरने से बाज़ नहीं आयेंगें. केवल ५०० रु० का अर्थदंड भी नेताओं के लिए आज के समय कुछ हैसियत नहीं रखता है इसे वे आसानी से चुका सकते हैं जिसके बाद किसी के पास कहने और करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता है. दंड कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे आचार संहिता की तरह उनके मन में इस बात के अनुपालन करने का दबाव बना रहे.
आज भारत में चुनाव आयोग इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी को जितनी सरलता से पूरा करता है वह पूरी दुनिया में बेमिसाल है और इसके लिए जिन कड़े क़दमों की आवश्यकता है उन्हें उठाने में किसी भी तरह से कोताही नहीं बरतनी चाहिए. देश में अब कुछ ऐसा किया जाना चाहिए कि महत्वपूर्ण विधेयकों के दस्तावेज़ संसद में रखे जाने से पहले उन्हें आम जनता के लिए प्रकाशित किया जाना चाहिए और अब इस बात का कोई मतलब नहीं है कि कौन क्या कहेगा ? अगर संसद का कोई विशेषाधिकार इसमें आड़े आता है तो उसे भी अब बदलने की ज़रुरत है क्योंकि जिनके लिए ये कानून बनाये जाते हैं उन्हें ख़ुद ही इसके बारे में इस पर कानून बन जाने के बाद ही पता चलता है. देश में हर तरह के विधेयकों के लिए सुझाव देने के लिए हर तरह के विशेषज्ञ मौजूद हैं तो फिर उनकी और आम जनता की सहायता लेने में परहेज़ कैसा ? जब देश की आर्थिक गति और दिशा को तय करने के लिए तैयार किये जाने बजट से पहले आर्थिक जगत से विचार विमर्श किया जा सकता है तो फिर ऐसा ही अन्य विधेयकों के बारे में क्यों नहीं किया जा सकता है ? यह देश नागरिकों से बना है और लोकतंत्र में जनता ही सबसे ऊपर है तो उसे इस तरह के अधिकारों से क्यों वंचित किया जाये ? अच्छा हो कि सरकार चलाने वाले कुछ और ज़िम्मेदारी से अपने को प्रस्तुत करें और इस तरह के बयान जिनका कोई मतलब नहीं है उन्हें देने से पहले उनके परिणामों पर भी विचार करें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज चुनाव के समय आयोग की सख्ती के कारण ही सभी दल बिलकुल निर्भीक होकर अपने प्रचार प्रसार को चला सकते हैं और जिस तरह से भारत में आसानी से सत्ता परिवर्तन हो जाता है वह अन्य जगहों पर संभव नहीं हो पाता है. आज देश में आचार संहिता से जुड़े किसी भी मसले में कम से कम २० हज़ार रु० का आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए और इसे उम्मीदवार के खाते में जोड़ दिया जाना चाहिए यदि उसी व्यक्ति द्वारा दोबारा इस तरह की बातें की जाएँ तो इसे एकदम से बढ़ाकर १ लाख रु० किया जाना चाहिए. साथ ही आयोग के पास इस बात के अधिकार भी होने चाहिए कि ऐसे किसी भी विवादित व्यक्ति के चुनाव में प्रचार करने या उसके चुनाव लड़ने पर ही रोक भी लगा सके. केवल अर्थ दंड से ही सारी बातें नहीं बनने वाली हैं क्योंकि नेता लोग कहीं न कहीं से इसकी कोई काट ढूंढ कर निकाल लेंगें और आयोग की मंशा पर पानी फेरने से बाज़ नहीं आयेंगें. केवल ५०० रु० का अर्थदंड भी नेताओं के लिए आज के समय कुछ हैसियत नहीं रखता है इसे वे आसानी से चुका सकते हैं जिसके बाद किसी के पास कहने और करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता है. दंड कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे आचार संहिता की तरह उनके मन में इस बात के अनुपालन करने का दबाव बना रहे.
आज भारत में चुनाव आयोग इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी को जितनी सरलता से पूरा करता है वह पूरी दुनिया में बेमिसाल है और इसके लिए जिन कड़े क़दमों की आवश्यकता है उन्हें उठाने में किसी भी तरह से कोताही नहीं बरतनी चाहिए. देश में अब कुछ ऐसा किया जाना चाहिए कि महत्वपूर्ण विधेयकों के दस्तावेज़ संसद में रखे जाने से पहले उन्हें आम जनता के लिए प्रकाशित किया जाना चाहिए और अब इस बात का कोई मतलब नहीं है कि कौन क्या कहेगा ? अगर संसद का कोई विशेषाधिकार इसमें आड़े आता है तो उसे भी अब बदलने की ज़रुरत है क्योंकि जिनके लिए ये कानून बनाये जाते हैं उन्हें ख़ुद ही इसके बारे में इस पर कानून बन जाने के बाद ही पता चलता है. देश में हर तरह के विधेयकों के लिए सुझाव देने के लिए हर तरह के विशेषज्ञ मौजूद हैं तो फिर उनकी और आम जनता की सहायता लेने में परहेज़ कैसा ? जब देश की आर्थिक गति और दिशा को तय करने के लिए तैयार किये जाने बजट से पहले आर्थिक जगत से विचार विमर्श किया जा सकता है तो फिर ऐसा ही अन्य विधेयकों के बारे में क्यों नहीं किया जा सकता है ? यह देश नागरिकों से बना है और लोकतंत्र में जनता ही सबसे ऊपर है तो उसे इस तरह के अधिकारों से क्यों वंचित किया जाये ? अच्छा हो कि सरकार चलाने वाले कुछ और ज़िम्मेदारी से अपने को प्रस्तुत करें और इस तरह के बयान जिनका कोई मतलब नहीं है उन्हें देने से पहले उनके परिणामों पर भी विचार करें.
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