मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 21 मार्च 2012

क्षत्रपों का उभार

          देश की राजनीति में जिस तरह से अब राज्यों में नए-नए क्षत्रप केंद्रीय राजनीति को चुनौती देने में लगे हुए हैं उससे यही लगता है कि फिलहाल इनसे निजात पाने का कोई रास्ता किसी के पास नहीं है ? जिस तरह से विभिन्न गठबन्धनों में समय समय पर दरारें दिखाई देती हैं और कुछ मांगों को मनवा कर कुछ फैसलों को उलटवा कर अपने को बड़ा साबित करने की कोशिशें की जाती हैं उससे यही लगता है कि हमारे राजनैतिक स्वरुप में कहीं न कहीं कुछ खामियां तो अवश्य ही हैं जिसके चलते आज इस तरह की घटनाएँ पूरे देश के हर हिस्से में अधिकता से दिखाई देने लगी हैं. यह सही है कि जिन दलों ने विभिन्न मुद्दों पर कोई भी चुनाव आमने सामने लड़ा हो उनके लिए हर मुद्दे पर एकमत हो पाना नामुमकिन होता है पर किसी भी पार्टी में इस तरह के स्वर आज आम हो चले हैं जिससे यह लगता है कि या तो पार्टियों में ही कुछ गड़बड़ है या फिर क्षेत्रीय नेता अपने को राष्ट्रीय नेतृत्व के आगे बड़ा साबित करना चाहते हैं जिसके चलते ही ऐसा कुछ अधिक ही होने लगा है ? देश की जनता से स्पष्ट जनादेश न मिल पाने की स्थिति में भी इस तरह से राजनैतिक अराजकता को बढ़ावा मिलता है जिससे किसी भी तरह से देश का हित नहीं होता है. राष्ट्रीय दलों की असफलता और क्षेत्रीय दलों के उभार से आज यह स्थिति और भी विकत होती चली जा रही है.  
         इस तरह की घटनाओं से लाभ उठाने की सभी दलों की नीतियों ने भी ऐसी स्थितियों के पनपने के लिए बराबर अवसर प्रदान किये हैं जिस कारण से भी अवसरवादिता के चलते राजनैतिक मूल्यों का तेज़ी से ह्रास होना शुरू हो चुका है. किसी भी पार्टी में बग़ावत के सुर सुनाई देते ही वहां का विपक्षी दल अचानक ही बागियों के लिए बिछने लगता है जैसे उसके पास कोई और काम बचा ही नहीं है जिससे इस तरह से राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ावा मिलता है और आने वाले समय में इस तरह से कुछ हासिल कर लेने की चाह से भी बग़ावत के सुर बुलंद होते चले जाते हैं. यह किसी एक दल के साथ नहीं हो रहा है पर आज सभी दल अपनी क़ाबलियत के स्थान पर दूसरे की कमियों का लाभ उठाने की सोचते हैं जिससे रोज़ ही राज्यों में नए नए लोगों को तात्कालिक राजनैतिक लाभ के उठाया जाता है पर इस तरह के स्वार्थी तत्वों का साथ देने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसी स्थिति दूसरे दल उनके लिए भी पैदा कर सकते हैं जिससे पूरे राजनैतिक तंत्र में अस्थिरता को बढ़ावा मिलने लगता है. देश में राजनैतिक तंत्र ने जिस तरह से हर बात का छोटा रास्ता ढूंढ किया है उससे भी इस तरह की समस्याएं अधिक संख्या में होने लगी हैं. आज कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ पर इस तरह की स्थितियां उत्पन्न न होती हों. खेद की बात यह है कि राष्ट्रीय दल भी इस स्थिति से सही ढंग से निपटने के स्थान पर अपना उल्लू सीधा करने को ही अधिक महत्त्व देने लगे हैं.
        देश के ज़िम्मेदार दलों को अब इस बात पर गंभीरता से विचार करना ही होगा कि गठबंधन की स्थिति में या सामान्य बहुमत से सरकार चला रहे दलों को किन्हीं मुद्दों पर केवल नीतिगत बातों पर ध्यान देना चाहिए जिससे इस तरह की स्थिति में कोई बागी नेता या गुट किसी भी स्थिति में दबाव की राजनीति न कर सके ? देश के राजनैतिक स्वरुप को अभी भी बहुत दूरी तय करनी है आज भी उसमें गठबंधन चलाने और उसमें शामिल होने की आदत नहीं आई है जिससे हर जगह पर कई बार नीतिगत मुद्दों पर राजनीति हावी हो जाया करती है. देश के राजनैतिक तंत्र में सबसे बड़ी कमी आज भी बनी हुई है कि नीतिगत मामलों पर भी दलों में कोई सामंजस्य नहीं है जबकि आवश्यकता इस बात की है कि देश के लिये कुछ क्षेत्रों में अगले १० वर्षों के लिए नीतियां सभी दलों को बैठकर बनानी चाहिए और किसी भी दल की सरकार आये उसे इस बात पर पूरा ध्यान देना चाहिए इन नीतियों में अगर किसी भी तरह के बड़े बदलाव या छोटे बदलाव की भी ज़रुरत हो तो इसके लिए घोषणाएं करने से सभी दलों की सहमति भी ली जाये जिससे किसी भी नीतिगत मुद्दे पर संसद के स्वर अलग अलग न दिखाई दें ? लोकलुभावन नीतियां देश की आर्थिक सेहत पर बुरा प्रभाव डालती हैं इस बात को जितनी जल्दी ही समझ लिया उतना ही अच्छा होगा क्योंकि अब जनता में जागरूकता बढ़ रही है और इस तरह की नौटंकी जनता के हित में होने के बजाय देश का अहित करती रहती है जो कि अंत में देश के नागरिकों पर ही बोझ बन जाती है.         

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