नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा देश की आन्तरिक सुरक्षा के मुद्दे पर बुलाये गए मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन का वही हश्र हुआ जिसकी आशंका जताई जा रही थी. केंद्र सरकार ने एनसीटीसी पर राज्यों की आपत्तियों को देखते हुए यह निर्णय लिया था कि इस मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन से अलग हटकर उस मसले पर चर्चा की जाएगी पर देश की आन्तरिक सुरक्षा पर विमर्श करने के स्थान पर वहां जिस तरह से केवल केंद्र सरकार के प्रस्तावित आतंक निरोधी केंद्र को लेकर राजनीति होती रही वह देश के लिए अच्छा नहीं है. यह कोई राजनैतिक सम्मलेन नहीं था और लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अवसर मिलता है जब बात केवल आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी हुई हो तो केवल एक मुद्दे को केंद्र में रखकर असहमति जताने से क्या हासिल किया जा सकता है ? अभी हाल में ही जिस तरह से ओडिशा में माओवादियों द्वारा संकट खड़े किये जा रहे हैं तो उस पर चर्चा करने के स्थान पर आने वाले समय के केंद्र पर अधिक बवाल मचाया गया ? जब हाल ही में अफ़गानिस्तान में तालिबान ने इस तरह से खुला हमला किया है और पूरी दुनिया में आतंक से निपटने के रास्ते खोजे जा रहे हैं तब हमारे नेता आपस में बैठकर केवल इस बात पर एक दूसरे को दोषी बताने से नहीं चूक रहे हैं कि किस बात के लिए कौन दोषी है ?
कोई भी नीति हमेशा अच्छी या ठीक नहीं हो सकती पर किसी नीति में इतनी ख़ामियां भी नहीं हो सकती कि उसे लागू ही न किया जा सके पर हमारे देश में कुछ ऐसा राजनैतिक माहौल बना हुआ है कि ख़ुद के द्वारा प्रतावित हर बात सही और दूसरे की हर बात ग़लत लगने लगी है जिसका खामियाज़ा देश ही भुगत रहा है क्योंकि आतंक के मसले पर पूरे देश की चुनौतियाँ एक समान हैं और देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के लिए इसके ख़तरे भी एक जैसे ही हैं पर हमारा राजनैतिक तंत्र पता नहीं किस मानसिक दशा में जी रहा है कि उसे इन बातों पर भी राजनीति ही सूझती रहती है ? अपनी जिम्मेदारियों से भागना तो कोई हमारे नेताओं से सीखे क्योंकि जब किसी तरह के निष्कर्ष पर पहुँचने का समय होता है तो ये एक दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं और जब कभी कोई बड़ा संकट आ जाता है तो इनकी उँगलियाँ केंद्र और राज्यों के ख़ुफ़िया तंत्र और सुरक्षा बलों के अधिकारों और लापरवाहियों में ही उलझ कर रह जाती हैं ? पूरे देश ने यह तमाशा कई बार देखा है पर शायद २६/११ के समय पहली बार था कि नेताओं ने कुछ संयम का प्रदर्शन किया था पर शायद वह उस समय मजबूरी में उठाया गया कदम था क्योंकि जनता के आक्रोश को समझते हुए नेताओं ने राजनीति से कुछ दिनों के लिए तौबा कर ली थी.
आज भी सड़क,अस्पताल और ट्रेनों में फटने वाले बमों से आम नागरिक ही मारा जाता है और नेता तब भी अपने सुरक्षा घेरे में सुरक्षित ही रहता है तो उसे क्यों चिंता होने लगी कि देश के नागरिक किन परिस्थितियों और उनकी लापरवाहियों के कारण किस तरह से आतंक का शिकार हो जाते हैं ? क्या हमारे नेताओं को राजनीति करने के लिए भी केवल वही अवसर हाथ आते हैं जब कुछ ठोस करने का समय होता है ? एनसीटीसी पर जब अलग से बात करने पर सहमति बन चुकी थी तो उसको इस सम्मलेन में उठाने का क्या औचित्य था ? इस प्रस्तावित केंद्र के अधिकारों के बारे में जिस तरह से मुखर विरोध किया जा रहा है तो क्या आज की स्थितियों में नेताओं के पास इसका कोई बेहतर और कारगर विकल्प है और यदि है तो उन्हें अपने स्तर से इसे लागू करने का प्रयास करना चाहिए. हो सकता है कि इस केन्द्र के कुछ अधिकार राज्यों के अधिकारों में दख़ल देते हों पर जब आतंकी पूरे देश में ही दख़ल दे रहे हों तब इस तरह के अधिकारों के चक्कर में क्या नियमों को लचीला बनाया जाना चाहिए ? एक केंद्र के अधिकारों के चक्कर में क्या इस महत्वपूर्ण अवसर पर इस तरह के सन्देश दिए जाने को किस तरह से उचित कहा जा सकता है ? देश में विचारों की बहस के स्थान पर हल्ला बोल संस्कृति ने अपने पैर जमा लिए है और उसके कारण ही हर जगह पर जब निर्णय लेने और विमर्श की आवश्यकता होती है तो हमारा राजनैतिक तंत्र एक दूसरे पर आरोप लगाने में ही अपना समय नष्ट कर देता है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
कोई भी नीति हमेशा अच्छी या ठीक नहीं हो सकती पर किसी नीति में इतनी ख़ामियां भी नहीं हो सकती कि उसे लागू ही न किया जा सके पर हमारे देश में कुछ ऐसा राजनैतिक माहौल बना हुआ है कि ख़ुद के द्वारा प्रतावित हर बात सही और दूसरे की हर बात ग़लत लगने लगी है जिसका खामियाज़ा देश ही भुगत रहा है क्योंकि आतंक के मसले पर पूरे देश की चुनौतियाँ एक समान हैं और देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के लिए इसके ख़तरे भी एक जैसे ही हैं पर हमारा राजनैतिक तंत्र पता नहीं किस मानसिक दशा में जी रहा है कि उसे इन बातों पर भी राजनीति ही सूझती रहती है ? अपनी जिम्मेदारियों से भागना तो कोई हमारे नेताओं से सीखे क्योंकि जब किसी तरह के निष्कर्ष पर पहुँचने का समय होता है तो ये एक दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं और जब कभी कोई बड़ा संकट आ जाता है तो इनकी उँगलियाँ केंद्र और राज्यों के ख़ुफ़िया तंत्र और सुरक्षा बलों के अधिकारों और लापरवाहियों में ही उलझ कर रह जाती हैं ? पूरे देश ने यह तमाशा कई बार देखा है पर शायद २६/११ के समय पहली बार था कि नेताओं ने कुछ संयम का प्रदर्शन किया था पर शायद वह उस समय मजबूरी में उठाया गया कदम था क्योंकि जनता के आक्रोश को समझते हुए नेताओं ने राजनीति से कुछ दिनों के लिए तौबा कर ली थी.
आज भी सड़क,अस्पताल और ट्रेनों में फटने वाले बमों से आम नागरिक ही मारा जाता है और नेता तब भी अपने सुरक्षा घेरे में सुरक्षित ही रहता है तो उसे क्यों चिंता होने लगी कि देश के नागरिक किन परिस्थितियों और उनकी लापरवाहियों के कारण किस तरह से आतंक का शिकार हो जाते हैं ? क्या हमारे नेताओं को राजनीति करने के लिए भी केवल वही अवसर हाथ आते हैं जब कुछ ठोस करने का समय होता है ? एनसीटीसी पर जब अलग से बात करने पर सहमति बन चुकी थी तो उसको इस सम्मलेन में उठाने का क्या औचित्य था ? इस प्रस्तावित केंद्र के अधिकारों के बारे में जिस तरह से मुखर विरोध किया जा रहा है तो क्या आज की स्थितियों में नेताओं के पास इसका कोई बेहतर और कारगर विकल्प है और यदि है तो उन्हें अपने स्तर से इसे लागू करने का प्रयास करना चाहिए. हो सकता है कि इस केन्द्र के कुछ अधिकार राज्यों के अधिकारों में दख़ल देते हों पर जब आतंकी पूरे देश में ही दख़ल दे रहे हों तब इस तरह के अधिकारों के चक्कर में क्या नियमों को लचीला बनाया जाना चाहिए ? एक केंद्र के अधिकारों के चक्कर में क्या इस महत्वपूर्ण अवसर पर इस तरह के सन्देश दिए जाने को किस तरह से उचित कहा जा सकता है ? देश में विचारों की बहस के स्थान पर हल्ला बोल संस्कृति ने अपने पैर जमा लिए है और उसके कारण ही हर जगह पर जब निर्णय लेने और विमर्श की आवश्यकता होती है तो हमारा राजनैतिक तंत्र एक दूसरे पर आरोप लगाने में ही अपना समय नष्ट कर देता है.
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tada ya pota kyon nahi laaya jaata..
जवाब देंहटाएंआज भी सड़क,अस्पताल और ट्रेनों में फटने वाले बमों से आम नागरिक ही मारा जाता है और नेता तब भी अपने सुरक्षा घेरे में सुरक्षित ही रहता है तो उसे क्यों चिंता होने लगी कि देश के नागरिक किन परिस्थितियों और उनकी लापरवाहियों के कारण किस तरह से आतंक का शिकार हो जाते हैं ?
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