मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

फिर सब्सिडी ?

           देश में सब्सिडी का मुद्दा कुछ इस तरह से राजनैतिक स्वरुप ले चुका है कि किसी भी परिस्थिति में इस बारे में कोई भी बात शुरू होती है तो अचानक ही इसका विरोध शुरू हो जाता है. पता नहीं क्यों देश के नेता किन कारणों से इस सब्सिडी को बनाये रखना चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि इससे सबसे ज्यादा उन गरीबों का ही नुकसान हो रहा है जिनके लिए घोषित तौर पर यह सब्सिडी दी जाती है ? पर इस सब्सिडी के खेल में जिस स्तर पर बड़ा खेल होता है शायद आज हमारे देश के कर्णधार उस लाभ को छोड़ना नहीं चाहते हैं तभी वे इस तरह के इन्स्पेक्टर राज की पैरवी करते रहते हैं. एक समय था जब भारत में चीनी और सीमेंट भी इसी तरह सब्सिडी के कारण परमिट से मिला करती थी जिन लोगों ने वह पुराना समय देखा है उन्हें याद ही होगा कि उस समय बरसात में मकान की मरम्मत करवाने के लिए मार्च से सोचना पड़ता था क्योंकि जब तक इलाके के एसडीएम का आदेश नहीं होता था तब तक एक बोरी सीमेंट भी नहीं मिल सकती थी ? शादी या घरों में अन्य उत्सवों के लिए कार्ड लेकर सरकारी कार्यालयों में घूमना पड़ता था तब जाकर चीनी मिल पाती थी. जब से इसे बाज़ार के हवाले कर दिया गया तब से कौन सा हंगामा खड़ा हो गया है ? इनको नियंत्रण मुक्त कर देने से ऐसे कौन से कारण बन गए जिन्हें देशवासी नहीं संभाल सके ? आज कुछ ऐसी ही स्थिति पेट्रोलियम क्षेत्र की भी हो रही है जब तेल कम्पनियां लगातार घाटे में जा रही हैं और उससे किसी का लाभ भी नहीं हो रहा है.
            क्या आज केरोसीन के कम दाम होने से इसको डीज़ल में नहीं मिलाया जा रहा है ? क्या घरेलू गैस का खुलेआम वाहनों में दुरूपयोग नहीं हो रहा है ? क्या कारण है कि गरीबों के नाम पर मांगी गयी सब्सिडी कुछ लोगों की जेब में ही जा रही है और इस चोरबाजारी को ख़त्म करने के लिए कोई कुछ करना भी नहीं चाहता है ? गांवों में रहने वाले गरीबों को साल में कितनी बार केरोसीन मिल पाता है क्या कभी इस बारे में किसी ने तथ्य जुटाने की कोशिश भी की है ? कोई भी इसे अपने हितों केलिए ख़त्म नहीं करना चाहता है क्योंकि यदि डीज़ल और केरोसीन से पूरी तरह से सब्सिडी हट गयी तो इसके नाम पर जो एक सामानांतर भ्रष्ट अर्थ तंत्र चल रहा है वह पूरी तरह से बंद हो जायेगा जिसका सीधा असर इस कारोबार से जुड़े हुए लोगों पर ही पड़ने वाला है. सरकार के पास केवल नीतियां बनाने और उनको क्रियान्वित करवाने जैसे मूलभूत काम ही होने चाहिए क्योंकि किसी भी तरह का नियंत्रण केवल सरकारी मशीनरी को भ्रष्ट बनाने का ही काम करता है और भारत में पहले से ही हर जगह पर लालफीता शाही चल रही है तो ऐसे में जिन क्षेत्रों में इसे ख़त्म किया जा सकता कम से कम वहां पर तो प्रयास किये ही जाने चाहिए. अगर सरकार चाहे तो राज्यों और केंद्र द्वारा लिए जाने वाले करों में कटौती करके इन पदार्थों को पूरी तरह खुले बाज़ार के हवाले कर सकती है पर जिस तरह से भारत में गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है उस स्थिति में किसी के लिए यह सब कर पाना उतना आसान नहीं होने वाला है. राज्यों और केंद्र सरकार की आर्थिक अक्षमता के कारण ही तेल से मिलने वाले भारी राजस्व को सही ढंग से खर्च ही नहीं किया जाता है और इस धन का दुरूपयोग किया जाता है. 
          आख़िर क्यों सरकार जनता के धन को कई बार प्रवाह में लाना चाहती है कोई अर्थ शास्त्री ही इसका सही जवाब दे सकता है पर खुले तौर पर जब जनता के धन का कई बार प्रवाह होता है तो उसमें भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी बढ़ जाती है. सबसे पहले सरकार इन पदार्थों पर भारी टैक्स लेती है जिसमें बड़े पैमाने पर धांधली होने की सम्भावना होती है फिर इसी कर के रूप में एकत्रित किये गए धन को सब्सिडी के रूप में वह जनता को वापस करती है ? इस तरह से जो कर के रूप में संग्रह किया गया है वह सब्सिडी के रूप में वापस आता है और यहीं से खेल शुरू हो जाता है. जितने कड़े और अव्यवहारिक नियम आज भी देश में हैं उनके चलते ही इन पदार्थों के रिटेलर के सर पर हमेशा ही कार्यवाही की तलवार लटकती रहती है तो वे भी अपने को बचने के लिए कई तरह की जुगत भिड़ाकर अपना काम निकलते रहते हैं. यदि केरोसीन, घरेलू गैस और डीज़ल को आज के मूल्यों के हिसाब से बेचना कहीं से भी लाभप्रद होता तो पूरे देश में खुदरा व्यापार शुरू करने के बाद एशिया की बड़ी तेल कम्पनियों को तेल बेचने वाली रिलायंस अपने पम्प बंद नहीं कर देती ? सरकारी सब्सिडी का लाभ अगर सही पात्रों तक पहुँचाने की इच्छा अगर नेताओं में नहीं है तो उन्हें इस क्षेत्र को अविलम्ब बाज़ार के हवाले कर देना चाहिए और एक वर्ष तक देश पर पड़ने वाले इसके असर को भी देखना चाहिए और उसके बाद ही इस पर कोई अंतिम निर्णय भी लेना चाहिए.  
      

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