मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 14 मई 2012

संसद और सांसद

            संसद की ६० वीं सालगिरह के मौके पर जिस तरह से एक बार फिर से सत्ता पक्ष और विपक्ष ने संसद की गरिमा को बनाये रखने को लेकर जू भी संकल्प लिए हैं वे एक बार फिर से खोखली बातें ही साबित होने वाले हैं क्योंकि आज हमारे सांसदों में सार्थक बहस करने की इच्छा शक्ति दिखाई ही नहीं देती है तो उस स्थिति में आख़िर किस तरह से संसद और संसदीय मूल्यों की रक्षा की बात की जा रही है ? ऐसा भी नहीं है कि संसद कोई काम ही नहीं करना चाहती पर पहले जिस तरह से विभिन्न संसदीय समितियां अपने काम को बहुत अच्छे और तत्परता के साथ करने में विश्वास किया करती थीं आज उनकी ही कमी दिखाई देने लगी है. सरकार और विपक्ष के लिए मिलकर विभिन्न मुद्दों पर बहस करने के लिए ये समितियां अच्छा काम कर सकती हैं क्योंकि वहां पर सभी दलों के लोग होते हैं और देश के लिए किसी भी नयी नीति के निर्धारण के समय क्या समस्याएं सामने आ सकती हैं इस बात पर पूरी सार्थक बहस की जा सकती है जिससे संसद की गरिमा बनी रहे और देश को भी लम्बे समय तक चलते रहने वाली नीतियां देखने को मिलें.
        अभी तक जो कुछ भी हो रहा है उसमें संसद के काम काज को बाधित करने के काम को प्रत्मिकता दी जाने लगी है इस स्थिति में आखिर संसद अपने काम को कैसे ठीक ढंग से कर सकती है ? कोई भी सरकार अपने अनुसार काम करती है पर उसके साथ देश के प्रति उसकी सोच भी सामने आती है उस स्थिति में आख़िर कोई सरकार किस तरह से विपक्ष और देश की अनदेखी कर सकती है ? क्या विपक्ष का काम केवल सरकार की हर बात पर विरोध करना ही होना चाहिए ? अब देश की संसद ने ६० वर्ष देख लिए हैं किसी लोकतंत्र के लिए ये वर्ष बहुत अधिक नहीं होते हैं फिर भी इतने वर्षों में बहुत कुछ और सार्थक किया जा सकता था जितना शायद हम नहीं कर सके ? देश में आज जिस तरह से नयी नयी चुनौतियाँ सामने आ रही हैं उनसे निपटने के लिए समग्र नीतियों की आवश्यकता है पर हम जिस तरह से इनसे निपट रहे हैं उसका असर देश के भविष्य पर बहित तेज़ी से पड़ रहा है और सबसे चिंता की बात यह है कि लोकतंत्र के इस मंदिर में आज भी पवित्र आचरण करने के केवल संकल्प ही लिए जा रहे हैं और इन संकल्पों को इस तरह की किसी रस्म अदायगी भरे समारोह के बाद खूँटी पर टांगने का चलन बढ़ता ही जा रहा है. 
      संसद को सार्थक बहस का ज़रिया बनाया जाना चाहिए न कि उसे पहलवानों के अखाड़े में बदलने की कोशिशें की जानी चाहिए. जिन बहिर्गमनों को विपक्ष अपना हथियार मानता है वह आज सरकार के लिए तेज़ी से काम निपटने के साधन बनते जा रह हैं ? क्या कारण है जो समय सरकार को घेरने में लगाया जाना चाहिए वह आज केवल हल्ला मचाने में ही खर्च हो रहा है ? संसद के सामने हर समय चुनौतियाँ रहेंगीं क्योंकि किसी भी जीवंत लोकतंत्र की चुनौतियाँ कभी भी ख़त्म नहीं हो सकती है पर इन चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे राजनैतिक तंत्र में जो समझ होनी चाहिए वह कहीं से भी नहीं दिखाई देती है. देश में दलों के काम किसी भी प्रकार से अपनी बातों को मनवाने की शक्ति अर्जित करना ही हो गया है जिससे देश के लिए सही समय पर सही नीतियां बनाना आसान नहीं रह गया है. जिन मुद्दों पर विभिन्न राजनैतिक दलों में मतभिन्नता नहीं है कम से कम उन पर तो तेज़ी से काम होना ही चाहिए ? देश को आगे ले जाने की चाह में अगर सभी दलों को कुछ त्याग करना पड़े तो आज क्या वे इसके लिए तैयार हैं ? संसद में गरिमामयी आचरण के लिए कोई प्रभावी आचार संहिता बनायीं जानी चाहिए अगर ऐसे ही चलता रहा तो अगले बार किसी इस तरह से अवसर पर बनती हुई संसद ही देश के नागरिकों को कोई खोखला सन्देश देती हुई दिखाई देगी.      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें