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बुधवार, 21 नवंबर 2012

कश्मीर और सेना

             केन्द्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने एक बार फिर से गलत समय पर केंद्र सरकार की इस मंशा को व्यक्त किया है कि वह लम्बे समय तक कश्मीर घाटी में सेना को नहीं रखना चाहती है. कश्मीर के जो हालात हैं और जितनी मुश्किलों के बाद ही वहां पर इतनी शांति आ पाई है कि अब लोगों के लिए सामान्य रूप से जी पाना संभव हो पाया है तो इस स्थिति में किसी भी मंत्री और खासकर गृह मंत्री के इस तरह के बयान की कोई आवश्यकता ही नहीं थी. जब भी केंद्र या राज्य की तरफ़ से कुछ ऐसा कहा जाता है तो उसके बाद आतंकी कहीं न कहीं अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कुछ हरकत करने से बाज़ नहीं आते हैं तो फिर घाटी में रह रहे लोगों और वहां पर तैनात सेना और अन्य सुरक्षा बलों के लिए दिल्ली या श्रीनगर में बैठकर इस तरह की बयानबाज़ी का क्या मतलब है ? देश के लिये क्या आवश्यक है यह नीतिगत मामला होना चाहिए जबकि लोग इसको नीतिगत मामले से बढ़कर राजनीति के रूप में दुरूपयोग करने लगते हैं जिससे लम्बे समय तक अशांत रहे इस क्षेत्र में समस्या ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती है.सरकार को अब केवल कारगर नीतियां बनाकर ही वहां के लोगों के लिए कुछ करना चाहिए जबकि सरकारें केद्र से मिले हुए धन को भी भ्रष्टाचारियों के हवाले कर देने में पीछे नहीं रहा करती हैं.
            कश्मीर घाटी में सेना जो कुछ कर सकती थी या उसे जितने अधिकार दिए गए उसमें उसने जो कुछ भी कर दिखाया है वह उसकी तरफ से देश को दिया गया उसका सर्वोत्तम योगदान है पर क्या देश के राजनैतिक तंत्र में इतनी इच्छाशक्ति बची है कि वह इस लाभ को एक अवसर के रूप में आगे बढाकर घाटी में स्थायी रूप से शांति को लौटाने का काम कर सके क्योंकि जब तक इस तरह से शांति के प्रयासों को विकास से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक किसी भी परिस्थिति में वास्तविक शांति को प्रयोजित करके कश्मीर में नहीं लाया जा सकता है ? आज पूरे देश की तरह जिस तरह से वहां भी प्रशासन के निचले स्तर तक भ्रष्टाचार ने अपने पैर जमा रखे हैं वह किसी भी तरह से आम लोगों को शांति के हर मसले पर झूठी दिलासा से अधिक कुछ नहीं लगते हैं. पहले दो दशकों तक सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच झूलते आम कश्मीरी को अब जब कुछ राहत मिल सकती है तो उसे वह भी नसीब नहीं हो रही है. ऐसी स्थिति में यदि विकास को लेकर संजीदा प्रयास किये जाएँ तो आने वाले समय में कश्मीर भी स्थायी शांति की तरफ बढ़ सकता है. इस पूरे प्रकरण में शांति लाने के हर प्रयास में आम कश्मीरी को अब यह कोशिश करनी ही होगी कि अब वह आतंकियों के चंगुल में न उलझें क्योंकि इस्लाम के नाम पर आतंकियों के जेहाद से जुड़ाव ने भी कश्मीर को बहुत पीछे धकेल दिया है.
           कश्मीर को इस हालात में पहुंचाने के लिए राज्य के राजनैतिक नेतृत्व को  बख्शा नहीं जा सकता है क्योंकि यह उसकी ही ग़लती थी जब १९८९ में वहां पर एकदम से चरमपंथियों ने अपने पैर जमा लिए जिन्हें उखाड़ने में सेना को पूरे मनोयोग से लगने के बाद भी दो दशक लग गए. हर नेता और पार्टी की अपनी महत्वकांक्षाएं होती हैं पर किसी भी परिस्थिति में क्या देश या प्रदेश की वास्तविक ज़रूरतों के स्थान पर कुछ और करके विकास को हासिल किया जा सकता है अब यह प्रश्न देश के सामने है. पंजाब और कश्मीर में जिस तरह से धर्म के आधार पर आतंकी गतिविधियाँ चलायी गयीं और राजनैतिक तंत्र पूरी तरह से विफल हुआ उनसे कितने लोगों को कभी भी न भरने वाले ज़ख्म मिले इसकी किसी ने परवाह नहीं की पर आज भी नेता भारी सुरक्षा में किसी भी जगह पर कुछ भी कह देने से नहीं चूकते हैं जिसका असर बहुत बार ग़लत तरीक़े से राज्य की जनता को भुगतना पड़ता है ? शिंदे को यह बात पार्टी, सरकार या संसद तक ही सीमित रखनी चाहिए क्योंकि इतने बड़े मुद्दों पर कहीं भी कुछ भी कहने से मसले की गंभीरता और नेताओं के बयानों की अहमियत कम होती है. जब देश को संकल्पित रूप से आतंक से लड़ने की ज़रुरत है तो उस स्थिति में ऐसे बयानों से कहीं न कहीं शांति के प्रयासों को धक्का ही लगा करता है क्योंकि जब आतंकी सुरक्षा बलों से उलझेंगे तो उसमें भीड़ भरे स्थानों पर निर्दोष लोग भी हताहत होंगें और इन मौतों का आतंकी हमेशा की तरह लाशों की राजनीति में इस्तेमाल करेंगें ?   
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