मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

सदन की चाल

                         हमेशा ही संसदीय परम्पराओं के ख़िलाफ़ बोलकर विवादों में रहने वाली मायावती ने आख़िर राज्यसभा में भी अपनी वही स्थिति एक बार फिर से प्रदर्शित की जिसके लिए वे जानी जाती हैं. राज्यसभा के सभापति और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को जिस तरह से उन्होंने सदन चलाने की भूमिका को लेकर घेरा उसका कोई मतलब नहीं था क्योंकि सदन चलाने में किसी भी पीठ के अध्यक्ष की जो भूमिका होती है उसका निर्वहन वे अच्छे ढंग से अभी तक करते रहे हैं फिर भी सदन न चल पाने में अंसारी की स्थिति को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है यह सोचने का विषय है ? सभापति के पास केवल निवेदन करने का अधिकार है और आजकल देश के नेताओं ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जिस तरह से सदन को ही अपना अखाड़ा बना लिया है उससे यही लगता है कि उनके मतलब की बात यदि सदन में नहीं हो रही है तो वे सदन को बंधक बना लेंगें और किसी भी परिस्थिति में उसे चलने नहीं देंगें. पीठ पर ऊँगली उठाते समय मायावती यह भूल गयीं कि खुद उनके निर्देश पर ही उनके विधायक और संसद सदनों में किस तरह से अराजकता फैलाते रहते हैं यदि वे सदन को चलने के लिए इतनी ही इच्छुक हैं तो पहले अपने सदस्यों को सलीके से पेश आने की हिदायत तो देनी ही पड़ेगी. अपनी कमियों के चलते किसी दूसरे को दोषी ठहराने से क्या हासिल हो सकता है यह तो माया ही जाने पर इससे देश की संसदीय परम्परोँ की धज्जियाँ उड़ने का एक और नया सिलसिला शुरू हो सकता है.
             क्या उपराष्ट्रपति के पास सदन चलने के अतिरिक्त कोई अन्य काम नहीं होता है जो माया ने उन पर यह आरोप लगा दिया कि १२ बजे उनके जाने के बाद सदन चल ही नहीं पाता है और यह भी पूछा कि सदन चलाने की ज़िम्मेदारी किसकी है ? यहाँ पर वह एक बात भूल गयी कि संसद सदस्य के तौर पर उन्होंने भी जो शपथ ली है उसका क्या मतलब है विचारों में मतभिन्नता सदैव होती है पर अपनी खुंदक इस तरह से सम्माननीय आसनों पर निकालने से वे आख़िर किस परंपरा का पोषण करना चाहती हैं. यदि अंसारी की तरफ़ से कोई भेदभाव किया जा रहा होता तो इस तरह के आरोप कहीं तक टिक भी सकते थे पर अब जब सदस्य ही सदन को नहीं चलाना चाहते हैं तो किसी पीठ पर बैठा कोई व्यक्ति किस तरह से सदन को चला सकता है यह माया से अवश्य ही पूछा जाना चाहिए. डॉ अम्बेडकर के सिद्धांतों की दिन रात कसमें खाने वाली माया को शायद यह याद नहीं रहता है कि संसदीय परम्पराएँ पीठ से नहीं चलती हैं बल्कि उनको चलाने में सदन में बैठने वाले सदस्यों का अधिक योगदान होता है बसपा का रिकार्ड आज तक संसदीय परम्पराओं के निर्वहन में कैसा रहा है यह किसी से भी छिपा नहीं है. इस तरह से संसदीय पीठों और संस्थाओं के अनादर करने किसी भी नेता को कम से कम एक वर्ष के लिए सभी सुविधाओं से वंचित करके सदन से निलंबित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि कोई भी नेता संसदीय परम्पराओं से ऊपर नहीं होता है परन्तु समय समय पर अराजक हो जाने वाले सभी दलों के नेता इस बात पर कभी भी सहमत नहीं होंगें. 
              इतनी बड़ी बड़ी बातें करने वाली माया को क्या यह भी नहीं मालूम है कि सामान्य संसदीय शिष्टाचार क्या होता है क्योंकि वे पहले भी संवैधानिक पदों पर टिप्पणियाँ कर चुकी हैं. अंसारी पर आरोप लगाने से पहले उन्हें खुद यह नहीं समझ में आया कि वे ११.३० पर अपने सदस्यों के साथ सदन में क्यों आई थीं ? क्या सदन को वे एक स्कूल समझती हैं जहाँ पर हर काम केवल हेडमास्टर ही करेगा और किसी की कोई ज़िम्मेदारी होगी ही नहीं आरक्षण का मुद्दा पहले से ही बहुत विवादों से घिरा हुआ रहा है और जिस तरह से बसपा द्वारा इस पर जल्दी मचाई जा रही है उसका भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यह के संविधान संशोधन विधेयक होगा और उसके केवल यूपीए या बसपा के दम पर पारित नहीं करवाया जा सकता है. माया को केवल आने वाले चुनावों में यह दिखाने की कोशिश करनी है कि उन्होंने इस आरक्षण को दिलवाने के लिये बहुत प्रयास किये हैं और सबसे दुःख की बात यह है कि माया समर्थक अधिकांश दलित वोटों में शिक्षा की कमी होने से उनको संसदीय परम्पराओं से कोई मतलब नहीं है और वे माया के इस तरह के कामों को उनकी हिम्मत के तौर पर देखते हैं जिससे हो सकता है कि माया के वोट तो बचे रहें पर देश की संसद के संवैधिनिक पदों पर ऊँगली उठाने की एक गलत परंपरा शुरू हो सकती है.        
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